योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 261
From जैनकोष
विशुद्धभावधारी कर्मक्षय का अधिकारी -
शुभाशुभ-विशुद्धेषु भावेषु प्रथम-द्व य म् ।
यो विहायान्तिमं धत्ते क्षीयते तस्य कल्मषम् ।।२६१।।
अन्वय :- शुभ-अशुभ-विशुद्धेषु भावेषु प्रथम-द्वयं विहाय य: (साधक:) अन्तिमं (विशुद्ध-भावं) धत्ते तस्य कल्मषं क्षीयते ।
सरलार्थ :- जीव के शुभ, अशुभ एवं विशुद्ध इसतरह तीन भाव हैं । इनमें से पहले शुभ- अशुभ-इन दो भावों को छोड़कर अर्थात् हेय मानते हुए/गौण करके अंतिम अर्थात् तीसरे विशुद्ध भावों को जो धारण करते हैं, वे साधक कषायों का नाश करते हैं ।