योगसार - मोक्ष-अधिकार गाथा 345
From जैनकोष
विद्वत्ता का सर्वोत्तम फल -
आत्म-ध्यान-रतिर्ज्ञेयं विद्वत्ताया: परं फलम् ।
अशेष-शास्त्र-शास्तृत्वं संसारोsभाषि धीधनै:।।३४५।।
अन्वय :- विद्वत्ताया: परं फलम् आत्म-ध्यान-रति: ज्ञेयं (अन्यथा) अशेष-शास्त्र-शास्तृत्वं संसार: (एव अस्ति इति) धीधनै: अभाषि ।
सरलार्थ :- विद्वत्ता का सर्वोत्तम फल निज शुद्धात्म ध्यान में रति अर्थात् आत्मलीनता ही जानना चाहिए । यदि विद्वत्ता प्राप्त होने पर भी वह विद्वान मनुष्य आत्म-मग्नतारूप कार्य न करे तो संपूर्ण शास्त्रों का शास्त्रीपना अर्थात् जानना भी संसार ही है; ऐसा बुद्धिधनधारकों ने अर्थात् महान विद्वानों ने कहा है ।