योगसार - मोक्ष-अधिकार गाथा 356
From जैनकोष
मुक्त जीव का स्वरूप -
(पृथिवी)
विविक्तेमति चेतनं परम-शुद्ध-बुद्धाशया:
विचिन्त्य सततादृता भवमपास्य दु:खास्पदम् । निरन्तमपुनर्भवं सुखमतीन्द्रियं स्वात्मजं समेत्य हतकल्मषं निरुपमं सदैवासते ।।३५६।।
अन्वय :- (ये) परम-शुद्ध-बुद्धाशया: विविक्तं इति चेतनं विचिन्त्य सतत-आदृता: दु:खास्पदं भवं अपास्य अपुनर्भवं समेत्य हतकल्मषं निरुपमं निरूपं अतीन्द्रियं स्वात्मजं सुखं सदैव आसते ।
सरलार्थ :- जो परम शुद्ध-बुद्ध आशय के धारक हैं अर्थात् जिनके श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र आदि अनंत गुणों में मात्र त्रिकाली भगवान आत्मा ही उपादेयरूप से बसा हुआ है; जो कर्मरूपी कलंक से रहित निज शुद्धात्मा का ध्यान करके मात्र उसके प्रति ही अपना सर्वस्व समर्पित कर चुके हैं अर्थात् उसके संबंध में ही आदर-भक्ति रखते हैं; जो मात्र दु:खस्थानरूप संसार का त्याग कर अपुनर्भवरूप मोक्ष जो अपने ही आत्मा से उत्पन्न, सर्व पापों से रहित, अतीन्द्रिय, अनुपम और अनंतसुखरूप तिष्ठ रहे हैं; वे मुक्त जीव हैं ।