वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1087
From जैनकोष
अवार्यविक्रम: सोऽयं चित्तदंती निवार्यताम्।
न यावद्धिसयत्येष सत्संयमनिकेतनम्।।1087।।
चित्तदंती के शीघ्र निवारण में हित― जीव का भला जीवन बिताने वाला है शुद्धाचरण।जो लोग सदाचार से रहते हैं उनके दसों साथी हो जाते हैं। जो पुरुष दुराचारी हो, हिंसक हो, कुशील हो, झूठा हो, चोर हो उसकी कौन मदद करता है? तो दूसरे लोग भी यदि आपका साथ देते हैं तो आप कोई खास नहीं है जिस वजह से साथ दे रहे हैं, किंतु आप कुछ सदाचरण से रहते हैं। सदाचार के अनुराग से दूसरे लोग भी साथ दिया करते हैं। और कोई दुराचार में लगे तो सब किनारा कर जाते हैं। तो दूसरे लोग भी हमारी यदि मदद करते हैं तो दूसरे नहीं करते, किंतु हमारा सदाचार हमारा खुद का उच्च विचार विज्ञान ज्ञान अपनी सम्हाल ये ही मदद कर रहे हैं। सो जब तक संयम बरबाद नहीं होता, यह चित्तरूपी हस्ती इस सयंमरूपी उपवन को तहस नहस न कर दे तब तक इसका निवारण कर ले अन्यथा यह चित्त काबू से दूर हो जाता है तो इसकी सम्हाल कठिन है। इस चित्त को रोकना बहुत कठिन है। एक तत्त्वज्ञान को सम्हाल से ही इस चित्तरूपी हस्ती को बाँध लिया तो यह बंध जायगा। और तत्त्वज्ञान की शृंखला नहीं है तो यह चित्तदेवी सम्हल नहीं सकती। नीतिकारों ने कहा है कि ये चार बातें एक-एक भी हों तो मनुष्य का अनर्थ करती हैं। कौनसी 4 बातें? जवानी, धनसंपदा, चला और अज्ञान। जवानी कितने ही अनर्थ विचारों का मूल है। धनसंपदा होने से मनुष्य किस प्रकार का अपना चित्त अहंकार में, तृष्णा में, असंतोष में बना लेता है। सब तत्त्व की बात भूल जाता है और अहंकार यह बनाता है कि मैने ही कमाया है, मैं इन सबको बहुत चाहता हूँ, यह वासना बसी रहती है। यह पता नहीं कि संपदा को क्या कोई शिर ने, हाथ ने, पैर ने कमाया, बुद्धि ने कमाया? किसी ने नहीं कमाया। हम जैसे शिर औरों के भी हैं। आप जैसे धन दिमाग वाले अनेक लोग हैं, पर उनके कुछ नहीं है और यहाँ कुछ मिला है तो उसका कारण क्या है? पूर्वकृत धर्म, पूर्वकृत पुण्य, अन्य कोई कारण नहीं है। उसमें अहंकार क्या करना, उसे विनश्वर जानकर उससे विरक्त रहना और समता से तथा जितना अधिक हो सके उतना धर्म के हेतु ही उसका विनिमय करना, क्योंकि सबसे ज्यादा रुचि जिसकी धर्म में होती है उसका सर्वस्व अधिक धर्म में विनिमय होता है और जिसकी रुचि परिजन में होती है कुटुंब में होती है उसके द्रव्य का व्यय कुटुंबियों हेतु ही सारा हुआ करता है। यह तो अपने अनुरूप ही मोह की राग की बात है। तो यह सर्व कमाई किसी ने नहीं की, अर्थात् वर्तमान के परिणाम ने, वर्तमान के परिश्रम ने धन का अर्जन नहीं कर दिया, किंतु पूर्व समय में ऐसा ही पुण्य भाव हुआ था, पुण्यबंध हुआ था कि इस भव में थोड़े से ही प्रयास से अथवा यों हो यह वैभव प्राप्त हो गया है। तो यह धन संपदा यदि ज्ञानी के पास है तो उसे विचलित न करेगी और यदि ज्ञान नहीं है, अविवेक हे तो यह धन संपदा तो अनर्थ ही करेगी। ऐसे ही कुछ चला हो गयी, प्रतिष्ठा बन गयी लोक में, कुछ बात चलने लगी, कुछ प्रधान माना जाने लगा तो इसकी भी वासना ऐसा अनर्थ करने वाली होती है, दूसरों ने अपमान कर दिया, दूसरों ने नीच समझा, अपने को सबसे भला माना और इस भाव में बहकर कभी गरीबों पर अन्याय भी करे, किसी दूसरे को कितना ही सता दे, जो कषाय में आये सो निर्णय करे― ये सब बातें इस प्रभुत्व में चला में संभव हैं, वे भी अनर्थ के लिए है। और अविवेक अज्ञान ये भी अनर्थ के लिए हैं। और जिस जीव की चारों बातें एक साथ आ जाय― जवानी भी हो, धनवान भी हो, उसका चला भी चलता हो और अज्ञान भी हो तब फिर उसके अनर्थ का तो कहना ही क्या है? सो ये सब अनर्थ इस मनरूपी हस्ती से हो रहे हैं। अतएव जब तक यह मनहस्ती इस सदाचार के उपवन को ध्वस्त न कर दे तब तक इसको रोके, इसको वश करें तो इसमें कल्याण है अन्यथा जैसे अनेक भव बिताये वैसे ही यह भव भी बीत जायगा, लाभ कुछ नहीं उठाया।में ना है।