वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1093
From जैनकोष
तप: श्रुतमयज्ञानतनुकलेशादिसंश्रयम्।
अनियंत्रितचित्तस्य स्यान्मुनेस्तुषकंडनम्।।1093।।
अनियंत्रित चित्त वाले मुनि के तप आदि की व्यर्थता:― जिस मुनि का चित्त अनियंत्रित है, यों समझिये कि जैसे मदोन्मत्त हस्ती किसी खूँटे से न बंधा हो तो वह अनियंत्रित रहता है और लोक में क्षोभ मचाता है ऐसे ही यह मनरूपी हाथी जब ज्ञान के खूँटे से बंधा हुआ नहीं रहता हे तो यह अनियंत्रित हो जाता है और लोक में क्षोभ मचाता है। हैं कौनसा ऐसा विषयभूत अर्थ जिस जगह इस चित्त को लगा दें तो यह स्थिर और नियंत्रित हो जाय, सोच लीजिए।इंद्रिय के विषयों में और मन के विषयों में तो कुछ ऐसा मिलेगा नहीं। इंद्रिय और मन के विषयभूत पदार्थ तत्त्व विभिन्न हैं और विनाशीक है तथा पर हैं। इन तीन बातों के कारण यह चित्त स्थिरता से उनमें ही किसी में टिक नहीं पाता। मन का ही विषय ले लो तो प्रथम ही प्रथम तो इसको थोड़ी यश की चाह रहती है। पहिले कोई ऐसी इच्छा जगी कि में इस कस्बे का एक सदस्य बन जाऊँ, फिर उससे भी तृप्ति नहीं होती। फिर वह तहसील का, फिर जिले का, फिर देश का, फिर विदेश का कुछ न कुछ पद प्राप्त करने की इच्छा करता है। धीरे-धीरे सारे विश्व का कुछ बनने की इच्छा करता है। चित्त टिक नहीं सकता क्योंकि मन के वे सब विषय विभिन्न हैं, पर हैं और विनाशीक हैं। कोई ऐसा तत्त्व मिले तो विभिन्न न हो, विनाशीक न हो और पर न हो, वहाँ चित्त जमाया जाय तो सफलता मिलेगी। ऐसा कौनसा तत्त्व है जो विभिन्न नहीं है? वह है अपना ज्ञानस्वरूप। यह विभिन्न नहीं है, सदा एकरूप है। ज्ञानस्वभाव की बात कह रहे हैं, परिणमन की बात नहीं कह रहे हैं। संसार अवस्था में ज्ञान का परिणमन विभिन्न चल रहा है वह भिन्न है और विनाशीक है, औपाधिक होने के कारण पर भी है उसकी बात नहीं कह रहे हैं, किंतु एक अपना शाश्वत स्वभाव ज्ञानमात्र ज्ञायकस्वरूप वह विभिन्न नहीं है, पर भी नहीं है, स्वयं स्वतंत्र है और विनाशीक भी नहीं है। उसमें चित्त लगायें। जैसे कि हम पदार्थों को जानते रहते हैं, जानने का यत्न करते हैं यों ही इस ज्ञायकस्वरूप को जानने में लगें, इसका ही यत्न करें तो हम इस ओरभी चित्त को लगा सकते हैं, ज्ञानवासित बना सकते हैं। तो यों ज्ञानवासित चित्त हो जाय अर्थात् नियंत्रित हो जाय, निज एकरूप शाश्वत ज्ञानस्वरूप में नियंत्रित हो जाय तब तक उस योगी का साध्य सिद्ध है। यदि ऐसा नियंत्रण न बन सका और विषयों में भटक रहा है मन तो ऐसे मन वाले योगी के ये सारी बातें तपश्चरण करें, शास्त्राभ्यास करें, यम नियम आदिक करें, जितने भी ये सब एक साधनभूत कार्य हैं वे तुस खंडन की तरह हैं। जैसे चावल निकल गए धान से तो अब उस भुस के खंडन से क्या सार मिलेगा? कुछ भी नहीं। ऐसे ही सार बात तो ज्ञानवासित मन को बनाना था, अपने आपमें उसे नियंत्रित करना था। अब जब नहीं किया जा सका तब चाहे कितना ही तपश्चरण हो, ज्ञानार्जन हो, बड़ा त्याग हो, वह सब भी तुसखंडन की तरह है।