वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1094
From जैनकोष
एकैव हि मन:शुद्धिर्लोकाग्रपथदीपिका।
स्खलितं बहुभिस्तस्य तामनासाद्य निर्मलाम्।।1094।।
लोकाग्रपथदीपिका मन:शुद्धि के बिना मोक्षमार्ग से स्खलन:― मन की शुद्धि ही मोक्षमार्ग में प्रकाश करने वाली एक दीपिका है उसको निर्मल न पाने से अनेक मोक्षमार्गी पुरुष अपने पथ से च्युत होते हैं। मन शुद्ध होता है इंद्रिय और मन के विषय में न जुड़ने से। मन की शुद्धि और किसी भाँति नहीं है कि कोई ऐसा पौद्गलिक तत्त्व नहीं है कि जिसे साबुन से पानी से रगड़ा जाय तो शुद्ध हो जाय। मन की पवित्रता है विषय और कषायों को ग्रहण न करने से। पूजा में भी बोलते कि जो मन परमात्मतत्त्व का ध्यान करता है वह पवित्र है। चाहे शरीर अपवित्र हो, पवित्र हो, किसी अवस्था में हो, किसी तरह बैठा हो, यदि प्रभुता में स्मरण है तो वह मन पवित्र है। मन की पवित्रता है विषयों में प्रवृत्ति न होने से, परिग्रह में चित्त आसक्त न होने से। यों समझ लीजिए कि चार प्रकार के आर्तध्यान और 4 प्रकार के रौद्रध्यान जिस चित्त पर हामी नहीं हैं वह चित्त पवित्र है। तो सब कुछ बात हमारे मन की पवित्रता पर निर्भर है। हम धर्मधारण के लिए बहुत श्रम करते हैं, नहाना, मंदिर जाना, पूजन करना, बहुत समय जाप सामायिक में लगाना यह सब करते हैं, पर यह भी तो सोचना चाहिए कि हमने अपने मन को कितना पवित्र बनाया है क्यों पवित्रता पर ही धर्म का विधान होता है अन्यथा वे सब-सब शरीर के क्लेश हैं और मन की पवित्रता जानने के लिए यह हमें अपना हिसाब देखना चाहिए कि हमने कामविषयक विकल्प कितने बनाया और कितनी प्रवृत्ति की और कामवासनारहित एक विशुद्धता में अपने मन को कितना रखा, हम खाने-पीने के चक्र में, चिंता में, वासना में कितना रहते हैं और उसके विकल्प से दूर कितने समय रहते हैं? लोग जरा-जरासी बात को सोचते नहीं हैं चलते-चलते खाना, दुकान पर खड़े-खड़े खाना, जब चाहे खा लेना यह सब क्या है? यह ध्यान की अपात्रता बनाने वाला काम है। बारबार का खाना, जहाँचाहे खड़े होकर खा लेना और भक्ष्य अभक्ष्य का ध्यान न रखकर खा लेना ये सब ध्यान की अपात्रता बढ़ाते हैं।
विषयविरक्त व ज्ञानोपयुक्तता में मंगलरूपता का लाभ:― जिसका चित्त विशुद्ध है, पवित्र है, ज्ञान की ओर लगता है उसके चित्त को इतनी फुरसत कहाँमिल पाती है जिससे चित्त विषयों में फँसे। छोटी-छोटी सी बातें भी हमें कल्याण से बहुत दूर रखती हैं? हम यह भी हिसाब देखें कि हमने खानपान की आसक्ति में कितना मन को लगाया है, कितना हमने भोजनपान आहार की धुन बनाया, इसी प्रकार घ्राणेंद्रिय के विषय में भी बात देखें। किन्हीं-किन्हीं का ऐसा मिज़ाज होता कि खूब सामने गुलदस्ते धरे हों तो मन ठिकाने रहता है। बहुत से फूल पास में पड़े हों, इत्रदान रखा हो, काट के कालर में अथवा नेकटाई में इत्र लगा हो, खूब सुगंध मिल रही हो तो उसमें चैन मानते हैं। कोई कह सकता है कि इसमें क्या बिगाड़ हो गया? तो भाई बाहर में तो कुछ बिगाड़नहीं दिख रहा पर जब चित्त घ्राणइंद्रिय के विषयों में जम रहा है, उनकी ओर लग रहा हे तो हम इस आत्मप्रभु से तो बड़ी दूर हो रहे हैं। यह तो महान बिगाड़ है। अब इंद्रिय के विषयों की बात निरखें। हम जिस रूप को जिस रंग को सुहावना समझते हैं वह सुहावना एक कल्पना से हुआ करता है। उसने देखने के लिए हमने अपने नियंत्रण को कितना तोड़ दिया, लाज को हमने कितना दूर किया, बड़ों की आन को हमने कितना मिटाया? इन बातों का भी हिसाब लगायें, ऐसी ही कानों की बात है। रागभरे शब्दों के सुनने में कितना हम मौज लेते हैं और राग को बढ़ाने वाली कथावों में हम कितना चित्त देते हैं उसका भी हिसाब लगायें, और मन की उड़ान तो बहुत-बहुत है, उसे संक्षेप में कहा जाय तो यों सोचिये कि मेरा मन मेरे इस विशुद्ध स्वरूप में कितना लगता है और अतिरिक्त अन्य-अन्य बाह्यपदार्थों में कितना जाता है, उसका हिसाब देखें, उसका खेद तो करें और जितना बन सकता हो उतना यत्न करें कि उससे हटकर हम अपने आपके इस ज्ञान में चित्त को बसायें, गलती तो गलती भी समझ लें, त्रुटि मानते रहें तो उसका कुछ न कुछ आचरण माना जायगा। त्रुटि को त्रुटि मानना भी एक सत् आचरण है। हमने कितना अपना अपराध समझा है उसका कुछ हिसाब तो देखें। धनवैभव परिग्रह के जोड़ने में अथवा तृष्णा बढ़ाने में, बाह्यवैभव में ही चित्त देते रहने में हम कितना योगदान करते हैं और अपने आपको अकिंचन निष्परिग्रह अनुभव करने में कितना प्रयत्न करते हैं, उसका भी हिसाब लगायें। यद्यपि गृहस्थावस्था में परिग्रह का काम करना ही पड़ता है। जिसके पास नहीं है पैसा वह गृहस्थी नहीं निभा सकता लेकिन पैसा हमारे विकल्पों से अथवा हाथ पैर के परिश्रम से नहीं आता। ये भी कुछ थोड़े साधन बन जाते हैं पर उदय अनुकूल है, हमारा पूर्वकाल में धर्माचरण बना हो तो ये सब बातें सुगमता से प्राप्त हो जाती हैं, इसमें आसक्ति रखना, तृष्णा रखना, इसकी ओरही अपनी बुद्धि बनाये रहना यह योग्य नहीं है, ये सब मायारूप हैं। किसी दिन ये सब छूट जायेंगे।
नि:संगता में ही आत्मोद्धार:― हम परिग्रहों में अपने चित्त को कितना भ्रमाये रहते हैं और अपने को निष्परिग्रह अकिंचनरूप में कितना अनुभव करते हैं? मेरा कहीं कुछ नहीं है। मैं ज्ञानमात्र हूँ, अमूर्त हूँ, अकिंचन हूँ, पर में मेरा कुछ नहीं लगा ऐसा हम अपने आपको कितने क्षण अनुभव करते हैं― कुछ निरखना चाहिए। इसीलिए तीन बार सामायिक बताया है। यह मनुष्य रात को 6 घंटा तो सोता ही होगा। तो उस सोये हुए टाइम को निकाल दो।फिर हिसाब लगा लो कि 6-6 घंटे के बाद सामायिक का टाइम आता है।सुबह सामायिक, फिर 6 घंटे के बाद में दोपहर में सामायिक, फिर 6 घंटे बाद शाम को सामायिक, फिर 6 घंटे सोने के बाद में सुबह की सामायिक। यह 6-6 घंटे बाद सामायिक के लिए क्यों बताया है? इसलिए बताया है कि उतने समय में मन में जो अपवित्रता आयी है उसे दूर कर मन को पवित्र बना ले। तो सबसे बड़ा कार्य है अपने मन को शुद्ध और पवित्र बनाये रहने का। यह बात बनेगी तत्त्वज्ञान से। विषयों में चित्त न रमे और अपने यश की वांछा न बढ़ायें और दूसरे जीवों को किसी प्रकार दु:ख पहुँचाने का भाव न रखें― ये तीन बातें बनती हैं तो अपने मन की पवित्रता समझिये। और नहीं तो चित्त गंदा है। जब कोई महापुरुष या नेता या राजा या आफीसरघर में आता है तो कितना अपने घर को स्वच्छ बनाते हैं तो हम मन को जहाँकि प्रभु आ सकते हैं, जिस हृदयमंदिर में प्रभु का आगमन हो सकता है वह हृदय यदि अपवित्र रहे तो वहाँ प्रभु कैसे आ सकते हैं? एक धार्मिक पद्धति का देश होने से सबके चित्त में यह उमंग रहती है कि हमें प्रभु के दर्शन हो जायें पर प्रभु के दर्शन तब मिलते हैं कि प्रभु पूर्ण निर्मल हैं तो हम भी यथाशक्ति अपनी निर्मलता बढ़ायें तो इस मार्ग से चलने पर हमें प्रभुदर्शन ही होगाऔर जब दर्शन होता है तब यह अपने आपमें निर्विकल्प एक सहज विलक्षण आनंद का अनुभव करता है और उस स्थिति में यह खूब प्रभुता से मिल लेता है जिसमें आनंद से छकित हो जाता है। और जब यह आनंद देर तब नहीं टिक पाता तो एक अफसोस होता है कि मैं इतने सुंदर मिलन से बिछुड़ गया। तो प्रभु का मिलन उस चित्त में होता है जो चित्त पवित्र है, विषय कषायों में मुग्ध नहीं होता है। तो हर संभव प्रयत्नों से हमें अपने आपके मन में ये तीन बातें लाना चाहिए― मेरा विषयों में चित्त आसक्त न हो, यश नामवरी के लिए न लगें और जगत के सब जीवों को ये सुखी हों, मेरा कोई विरोधी नहीं, ऐसे एक स्वरसस्वरूप से उन सबमें एकमेक मिलन बने, ये तीन बातें बनें तो मन पवित्र हो तो धर्म मिल सकेगा।