वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1096
From जैनकोष
अपि लोकत्रयैश्वर्यं सर्वाक्षप्रीणनक्षमम्।
भजत्यचिंत्यवीर्योऽयं चित्तदैत्यो निरंकुश:।।1096।।
चित्त दैत्य का पराक्रम―यह चित्तरूपी दैत्य जिसका पराक्रम भी अचिंत्य है उस मन को कोई गिरफ्तार भी कर सकता है क्या? कोई बंधन बाँध सकता है क्या?जेलखाना में डाल सकता है क्या? इस शरीर को तो बाँध ले, जेल में डाल दे पर मन किसी के बंधे नहीं बंधता। कभी ऐसा भी लगे कि हम तो न बंधते थे, पर दूसरे ने हमसे प्रीति करके बाँध ही दिया तो यह बात सत्य नहीं है। वह तो स्वयं अपने में स्नेह जगाकर बंधन में बंधता है। किसी दूसरे में यह सामर्थ्य नहीं हे कि किसी के मन को बाँध ले। ऐसा यह अचिंत्यशक्ति वाला है। सो यह निरंकुश होकर तीन लोक के ऐश्वर्य का बिगाड़ कर रहा है, लेकिन जब कोई समर्थ योगी इस चेत दैत्य को निरंकुश कर डाले, इसको निर्मूल वश में कर ले तो वह लोक के ऐश्वर्य को भोग लेता है। लोग भी कहते हैं― मन के हारे हार है मन के जीते जीत।