वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1104
From जैनकोष
आत्माधीनमपि स्वांतं सद्यो रागै: कलंकयते।
अस्तंद्रैरत: पूर्वमत्र यत्नो विधीयताम्।।1104।।
रागविजय के लिये अस्ततंदता की आवश्यकता― ऐसा भी मन बना लिया जिस योगी पुरुष ने कि अपने अधीन हो गया हो फिर भी यदि रागभाव जगता है तो ऐसा पवित्र किया गया मन भी शीघ्र कलंकित हो जाता है। अत: निष्प्रमाद होकर पहिले इसी विषय में ही यत्न करना चाहिए, ऐसा तत्त्वज्ञान चित्त में रखना चाहिए कि रागादिक भाव फिर हमारे चित्त को मलिन न कर दें। गृहस्थचर्या भी बहुत विधि की चर्या है। यद्यपि यह साक्षात् मोक्ष का मार्ग नहीं है लेकिन जिनको तत्त्वज्ञान जगा हो, जिसने अपना लक्ष्य सम्हाल लिया हो वह गृहस्थी में रहकर अपनी चर्या को बहुत पवित्र बना सकता है। गृहस्थचर्या में तीन वर्ग से काम पड़ता है धर्म, अर्थ और काम। तत्त्वज्ञानी गृहस्थ को इन तीन कामों में भी व्यग्रता नहीं रहती। धर्म के समय शुभोपयोग के समय, पूजा आदिक के अवसर में धर्मध्यान बनायें और जब आजीविका का समय हो तब दूकान पर आजीविका का कार्य किया और शेष समय गृहसमाज व्यवस्था आदिक के कार्य किया तो उस वातावरण में कलुषता का भी कहाँ अवसर है? तत्त्वज्ञान न हो, अज्ञान बसा हो तो उसे सब जगह कलुषता रहती है। लक्ष्य में यह आना चाहिए कि यह जगत यह घर यह समागम केवल मायाजाल है, स्वप्नवत् है, सारभूत कुछ है नहीं। संयोग हुआ है तो इनका वियोग जरूर होगा, इनमें क्या रमना? हित की बात तो अपने आपमें अपनी दृष्टि बना लेना है और अपने में मग्न रहना है। ऐसा लक्ष्य बन जाय, ज्ञानदृष्टि बन जाय फिर यह गृहस्थ घर के कर्तव्यों को निभाकर भी पवित्र चित्त रहा करता है और साधुजन तो वे ही कहलाते हैं जो ज्ञान की साधना बनाये रहें, जिनको इतना स्पष्ट भेदविज्ञान हो गया वे आत्मतत्त्व की ओर दृष्टि बनाये रहा करते हैं। उन्हें रागादिक से मलिन होने का कहाँअवसर है? तो गृहस्थावस्था में गृहस्थ के योग्य रागादिक न होना और साधु अवस्था में साधु के योग्य रागादिक न होना इसके लिए हमें यत्न रखना चाहिए।