वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1105
From जैनकोष
अयत्नेनापिजायंते चित्तभूमौ शरीरिणाम्।
रागादय: स्वभावोत्थज्ञानराज्यांगघातका:।।1105।।
रागादिकों की ज्ञानराज्यघातकता:― प्राणियों के चित्तरूपी भूमि में ये रागादिक विकार बिना ही यत्न के अनायास ही उत्पन्न हो जाया करते हैं और ये रागादिक उस ज्ञान राज्य का घात करते हैं जो साम्राज्य स्वभाव से उत्पन्न होता है। इसमें यह बात भी बता दी गई कि एक तो अनादिकाल से रागादिक में वासित चित्त होने से स्वभाव से ही रागादिक उठ रहे हैं, अनायास ही बिना श्रम किए और फिर कभी राग का साधन बनाये, कुछ ज्ञान कला पाये तो फिर उसके रागादिक विप्लव का ठिकाना ही क्या है? यह भाव केवल पीड़ा ही करता है। अपनी बीती हुई घटनावों में सब सोच लो। रागादिक करने का फल कभी मधुर नहीं हो सकता। जितने काल भी उस समागम में रहकर मौज माना उतने काल में एक बहुत बड़ी गलती की है। जैसे कि जिसकी जितनी उमर गुजर गई है उसे लग रहा है ना कि यह इतनी उमर कैसे चली गयी, और अभी ऐसा मालूम पड़ता कि बहुत बड़े दिन होते।अरे आज बहुत बड़े दिन लग रहे। पर ये जो 50-60 वर्ष गुजर गए वे कैसे लग रहे? वे भी तो यों ही चले गए। उनके समय की लंबाई अनुमान में नहीं आती। तो समागम में जो प्राप्त हुआ है इष्ट का वह कितने काल का समागम है? उसमें क्या हर्ष मानना? ये रागादिक भाव बनाये गए समागम में तो वियोग होने पर यह बहुत क्लेश पायगा नियम से। ज्ञान का सहारा लिए बिना हम आपका गुजारा न होगा चैन न मिलेगी। इन बाह्य वातावरण में विकारों में उलझकर हम कुछ पूरा नहीं पाड़ सकते, दु:खी ही रहेंगे। हम आपकी गलती क्या है? बड़े-बड़े महापुरुष भी अपने जीवन में कैसे-कैसे चरित्र कर गए उन्हें तो निहारिये। संयोग वियोग में कैसे-कैसे क्षोभ मचाये? अब वे कहाँ रहे? तो ये कुछ इष्ट समागम पाकर या उसकी कल्पनाएँ करके या उन साधनों से सुख होती है ऐसी अपनी बुद्धि बना करके जो विकार उत्पन्न किया जाता है वह विकार हमारे ज्ञानसाम्राज्य का घात करने वाला है। बहुत ही शीघ्र इन रागादिकों के दूर करने का यत्न करना चाहिएऔर विचार करना चाहिए।
निर्विकार स्वत्व के परिचय में चतुराई:― भैया ! कुशलता में इतना ही फर्क है कि जो बुद्धि कुछ समय बाद आयगी वह बुद्धि कुछ समय पहिले आ जाय इतना ही सारा अंतर है। इतनी त्रुटि हो जाने पर किसी को वह त्रुटि घंटाभर में ही समझ में आ जाती है। किसी को दो चार दिन में समझ में आती हे और किसी को 5 मिनट के बाद में ही समझ में आ जाती है। सम्यग्दृष्टि जीव जिस समय गलती कर रहा है उसी समय समझता रहता है, यह हे सारा अंतर। अपने अनुभव से देख लो। गलती करते हुए यह नहीं लगता कि हम कुछ गलती कर रहे हैं, पर गलती कर चुकने के बाद कुछ समय के अनंतर महसूस होता है ओह !मैंने गलती की थी। तो जो बुद्धि कुछ समय बाद जगेगी वह बुद्धि अभी ही तुरंत जग जाय, त्रुटियों के समय में भी जगती रहे बस यह सम्यग्दृष्टि की कला है, वह मोक्षमार्गी की प्रवृत्ति है। प्राणियों की चित्तरूपी भूमि में ये रागादिक अनायास पहुँच जाते हैं। प्रभु से यही तो प्रार्थना करना है, प्रभु एक पवित्र ज्ञानमूर्ति है, मुझे अपने उपयोग के निकट विराजमान करके यह भाव करना है कि हे प्रभो !अज्ञान का उपद्रव मेरा समाप्त हो। उस ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व के निकट अधिक बसा करूँ― यह भावना प्रभुपूजा के समय अपने चित्त में भरता है ज्ञानीजीव। और कुछ नहीं चाहता। निर्वाध होकर धर्मसाधना करना। क्यों ज्ञानी पुरुष तुम्हें वैभव न चाहिए क्या? क्या करें वैभव का? भिन्न पदार्थ है, करोड़ों का भी वैभव हो तो उससे मुझे लाभ क्या? क्यों भक्त तुझे अपना यश न चाहिए क्या? हे प्रभो ! क्या करूँयश नाम का, किसको अपना नाम जताना है, कौन यहाँ समर्थ है, अधिकारी है या मेरा पालनहार है या कौन यहाँ मेरा सुधार बिगाड़ करने वाला है? हे प्रभो ! यहाँ तो मेरा कोई प्रभु नहीं है, मैं यहाँ किसको क्या जताऊँ, ऐसा निर्वाछ होकर ज्ञानी पुरुष प्रभु उपासना में ज्ञानसाधना में जुटता है।