वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 111
From जैनकोष
भ्रूभंगारंभभीतं स्खलति जगदिदं ब्रह्मलोकावसानम्।
सद्यस्त्रुट्यंति शैलाश्चरणगुरुभराक्रांत धात्रीवशेन।
येषां तेपि प्रवीरा: कतिपयदिवसै: कालराजेन सर्वे।
नीता वार्तावशेषं तदपि हतधियां जीवितेऽप्युद्धताशा।।111।।
पुराण पुरुषों के चरित्र कथा का शेष― ऐसे-ऐसे वीर पुरुष जिनकी भौंह के कटाक्ष के होने मात्र से ही यह ब्रह्मलोक पर्यंत जगत भयभीत हो जाता है। ऐसे-ऐसे वीर पुरुष जिनके चरणों के भार के कारण पर्वत तत्काल खंडित हो जाते हैं ऐसे वीर पुरुषों की अब कहानी मात्र सुनने में आती है। वे अब रहे कहाँ? रावण बहुत विद्यावों का धारी था। उसने एक बार कैलाश पर्वत को भी हिलाने की कोशिश की थी। वहाँ तो एक साधुराज की तपस्या के प्रताप से वह नहीं ढाया जा सका, किंतु ऐसे-ऐसे कितने ही अन्य पर्वतों को ढाने की उसमें सामर्थ्य थी और उपद्रव भी किया होगा लेकिन आज केवल कहानी भर सुनने को रह गयी है। कितने ही लोग तो अब भी राम रावण को उपन्यास के ढंग से देखते हैं। किसी का कहना है कि वे हुए ही नहीं हैं। कुछ लोग तो यों भी कहते हैं कि ऐसे उपन्यासों से शिक्षा की बात जल्दी समझ में आ जाती है, इसलिये ऐसी शिक्षा देने के लिये ये उपन्यास बनाए हैं। मतलब यह है कि हमारे पुराण पुरुष इतने वीर उदार और सुभट हुए हैं कि उनके चरित्र बल का आजकल लोग अंदाजा भी नहीं कर पाते। वे अब यहाँ नहीं हैं, उनकी कहानी मात्र शेष है। चला आया है आगम में वर्णन। हम कहते हैं यह अयोध्या नगरी है, यहाँ इतने टीले पड़े हैं। ये सब प्राचीन महल थे, सोचते जाते हैं। होंगे भी, लेकिन आज ये कोई नहीं हैं। यों ही समझो कि यहाँ के लोग हम आप किसी वैभव, किसी अभिमान, किसी अहंकार के कारण कितने ही जो वाचालपना करते हैं कर लें किंतु रहेगा कुछ नहीं। यह जीव इस संसार में अशरण है, इसे कोई दूसरा शरण नहीं है। ऐसे-ऐसे महापुरुष भी जब काल के वशीभूत हो गए, फिर यह पर्यायबुद्धि जीव अपने जीवन की बड़ी आशा रख रहा है। यही तो एक बड़ी भूल है।
परमार्थ शरण के परिचय से अशरणभावना की सफलता― अशरण भावना में यह तो भा रहे हैं कि मेरा कोई शरण नहीं है, पर ऐसा ख्याल करने से तो क्लेश कई गुना और बढ़ता जायेगा। भावना से फायदा क्या हुआ? मुझे कोई शरण नहीं, मेरा कोई रक्षक नहीं। ऐसा सोचने से तो भय बढ़ेगा और खुद को कष्ट बहुत पहुँचेगा। फिर यह भावना धर्मरूप कैसे? समाधान यह है कि परपदार्थ कोई शरण नहीं है। ऐसा कहने में यह बात अंतर में छिपी हुई है कि मेरे लिये मेरा यह ध्रुव आत्मा शरण है। निज के शरण का परिचय जिसने किया है उस ज्ञानी के यह अशरण भावना धर्मरूप है, किंतु जिसने अपने शरण का परिचय नहीं पाया है उस अज्ञानी जीव को तो मेरा कोई रक्षक नहीं, मेरा कोई शरण नहीं, ऐसी बातें सोचना उसका केवल रोना ही रोना रूप है।
निज स्वरूप के आदर में शांतिलाभ― हम अपने आपके शरणभूत इस निजस्वरूप का आदर करें। मेरा इस जगत में मेरे सिवाय अन्य कुछ नहीं है। मेरा इस जगत में रंचमात्र भी कुछ नहीं है। दु:ख और किस बात का लग रहा है इस जीव को? इस ही बात का तो क्लेश हैं तो ये तो ये सब बाह्य पदार्थ और उन्हें अपने मन माफिक करना चाहते हैं। बाह्य पदार्थों में जैसी उनकी योग्यता है उसके अनुसार ही तो वे परिणमेंगे। दु:ख मिटाना हो तो अपने आपके स्वरूप का आदर करो। मैं अपने उस ऐश्वर्य को देखूँ जो मेरा सहज है। इस ज्ञानानंदसहजस्वरूप को तकूँ, इसमें ही रत रहूँ, इसमें ही संतुष्ट होऊँ, ऐसी भावना बनाएँ, ऐसा अंतरंग का झुकाव करें यह तो है सारभूत बात और बाह्यपदार्थों के प्रति, अन्य जीवों के प्रति अपनी आसक्ति और कल्पनाएँ बढ़ाना, यह है केवल कष्ट की बात।