वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 112
From जैनकोष
रुद्राशागजदेवदैत्यखचरग्राहग्रहव्यंतरा:।
दिक्पाला प्रतिशत्रवो करिबला व्यालेंद्रचक्रेश्वर:।
ये चान्ये मरुदर्यमादिबलिन: संभूय सर्वे स्वयम्।
नारब्धं यमकिंकरै: क्षणमपि त्रातुं क्षमा देहिनम्।।112।।
कालगृहीत प्राणी की अरक्ष्यता― जिस प्राणी पर यह मृत्यु मँडरा जाती है, मरणकाल आता है, यह काल अपनी कला से जिस प्राणी को पकड़ लेता है उसकी रक्षा करने में ये कोई भी समर्थ नहीं है। चाहे रुद्र भी हो कोई। रुद्र एक बहुत कुछ पहुँचे हुए अनेक विद्यावों के धनी होते हैं जिनको देवी देवता बहुत से किंकर होने के लिये प्रार्थना कर चूके हैं और इस प्रलोभन में थोड़ी चूक खाई है। इससे लोककार्यों में प्रवेश किया है ऐसे कोई रुद्र महापुरुष, आखिर विद्यावों के धनी तो वे हैं ही, उनमें भी यह सामर्थ्य नहीं है कि किसी मरते हुये जीव की रक्षा कर दें। बड़े दिग्गज देव और दैत्य जिनके दिव्य शरीर हैं, भूख प्यास की वेदनाओं से रहित हैं, ऐसे बड़े देवता भी इस मरणहार जीव को बचाने में समर्थ नहीं हैं।
संसार संकट― यह संसार संयोग वियोग का पिंड है। इसमें वेदना और है ही क्या? जिस किसी भी बाह्यपदार्थ को इष्ट मान लिया, इन इंद्रियविषयों के साधन में सहायक होने से, किसी को अनिष्ट मान लिया इन इंद्रियविषयों के साधन में बाधक होने से तो फिर इष्ट के संयोग को तरसता है, अनिष्ट के वियोग को तरसता है, इष्ट के वियोग से भयभीत है। बस यह ही तो केवल दु:ख है जीवों के। ये सारे दु:ख एक अपने स्वरूप की संभाल में जरा से बाह्यपदार्थों की उपेक्षा से, ललकार से ये सब संकट समाप्त हो जाते हैं। जैसे बड़े बलवान भी चोर चोरी करने को घर में घुसे हों तो बुढ़िया यदि घर में जरा सा खास दे तो वे सारे चोर उल्टे पैर भाग जाते हैं, ऐसे ही ये सब संकट चोर विपदा उपसर्ग वेदनाएँ सभी इस आत्मगृह में घुस आये हैं, किंतु यह आत्मा जरा भी ललकार करे, अपने स्वरूप को संभाले तो ये सब संकट भी यथाशीघ्र विदा हो जाते हैं।
स्वरूप संभाल― सुखी होने की कला हम आप सबमें पड़ी है, परंतु उस काल का उपयोग नहीं करते और दु:खी हो रहे हैं। वह कला क्या है? अपने स्वरूप का यथार्थ दर्शन कर लें, इतनी भर कला है। समस्त परपदार्थों से निराले देह से भी विलक्षण केवल ज्ञानानंद स्वरूपमात्र मैं हूँ, यह मैं अमूर्त हूँ। ऐसे इस अमूर्त जीवास्तिकाय की पहिचान हो तो वहाँ संकटों का क्या काम है? गोले भी बरस रहे हों, बम भी पड़ रहे हों और बन जाय कदाचित् ऐसी संभाल किसी ज्ञानी जीव के कि मैं तो अमूर्त आत्मतत्त्व हूँ। यद्यपि ऐसी स्थिति में हम आपके दिमाग के अनुसार कठिन सी बात लग रही है कि वहाँ हम अपना स्वरूप संभाले बैठ सकेंगे क्या? लेकिन स्वरूप संभाल सकने वाले भी ज्ञानी पुरुष मिलते ही हैं, होते ही हैं। उस समय इस अमूर्त ज्ञानानंद स्वरूपमात्र अपने आपकी संभाल करें तो वहाँ कौनसा कष्ट है? जहाँ इस संभाल से चिगे और केवल अपने प्राणों की ही बात नहीं, बाह्य में भी परिजन वैभव का वियोग हुआ कि यह जीव भयभीत हो जाता है, हाय ! क्या हुआ? कितने भी संकट हों, समस्त संकटों को समाप्त करने का अमोघ साधन अपने शुद्धस्वरूप की संभाल है।
कालगृहीत प्राणी की रक्षा में विद्यासमृद्धिवंतों की भी अक्षमता― जब यह जीव काल के गाल से गृहीत हो जाता है तो इसे बड़ा विद्याधर भी रक्षा करने में समर्थ नहीं है। जो आकाश में विमानों पर चलें, स्मरणमात्र से देव आकर एक सशस्त्र विरोधी से युद्ध कर दें, अनेक विद्याएँ भी जिन्हें सिद्ध हैं, ऐसे विद्याधर भी इस मरते हुए जीव की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं। देवता गृहव्यंतर दिग्पाल आदि ये सब मिलकर भी इस जीव को बचाने में समर्थ नहीं हैं। कभी तो ऐसा भी हो जाता है कि कोई मित्र बचाने की कोशिश करता है और उस मित्र की उस कोशिश के निमित्त से ही मरण हो जाता है। हितैषी परिजन रोगी को अच्छी से अच्छी औषधि खिलाने का यत्न करते हैं, कभी उसकी इस चेष्टा से उसके ही द्वारा दी हुई औषधि से उसकी मृत्यु हो जाती है। कौन रक्षक है इस जीव का। महापुरुषों में नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र ये भी इस मरणहार जीव को बचा नहीं सकते।
नारायण, प्रतिनारायण व बलभद्र की भी कालग्रस्त प्राणी की रक्षा में अक्षमता― नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र ये तीन पदवियाँ हैं, नाम नहीं हैं। नारायणपद, प्रतिनारायणपद और बलभद्र। नारायण और बलभद्र भिन्न-भिन्न होते हैं, किंतु प्रतिनारायण और नारायण से पहिले नारायण जैसा ही वैभव भोगते हुए और नारायण के अभ्युदय के समय ये प्रतिनारायण प्रतिपक्षी बनकर नारायण के द्वारा घाता जाता हो वह प्रतिनारायण है। जैसे कृष्ण जी के समय श्रीकृष्ण नारायण बलदेव बलभद्र और जरासिंध प्रतिनारायण थे। श्रीराम के समय लक्ष्मण नारायण श्रीराम बलभद्र और रावण प्रतिनारायण था? इन जीवों के उनके समय में कितना बड़ा वैभव ऐश्वर्य था, कितना प्रताप था। वह सब प्रताप केवल एक उनके पुण्य के अनुकूल फैल सका था, किंतु यह बल किसी में न था कि किसी मरणहार पुरुष को बचा सकें। यह सब इसलिये कह रहे हैं कि तुम अपनी कल्पनाएँ जिस किसी को शरण मानकर उसको अपना आत्मसमर्पण मत करो अर्थात् यह प्रत्यय मत करो कि मेरे ये शरण हैं। अपने आपके शाश्वत स्वरूप की खबर मत तजें।
कालग्रस्त प्राणी की रक्षा में देवों की भी अक्षमता― धरणेंद्र व्यंतरों में बहुत प्रसिद्ध और प्रभुभक्त देव होते हैं। प्रभु पार्श्वनाथ के उपसर्ग के समय धरणेंद्र और धरणेंद्र की देवी पद्मावती ने अपनी आराधना का विषय बनाया था, प्रभु का उपसर्ग टाला था। ऐसे विशिष्ट धरणेंद्र जैसे देव भी इस मरणहार जीव को बचाने में समर्थ नहीं होते, तब हम आप लोगों की कहानी क्या है? कोशिश सभी करते हैं। घर के जो इष्ट पुरुष होते हैं वे उस मरने वाले को बचाने का बड़ा यत्न करते हैं, पर वे कोई भी उसे बचा नहीं पाते हैं। आँखों देखते ही वह इस संसार से विदा हो जाता है। लो अब उसके प्राण पेट तक हैं, पैर तो ठंडे हो ही चुके हैं, लो अब गले तक प्राण चले आए, लो अब प्राण एकदम निकल गए। सारा दृश्य आँखों देखते रह जाते हैं पर कोई किसी को मरने से बचा सकता है क्या? ये देव, पवन, सूर्य आदिक बड़े बलिष्ठ देहधारी सबके सब एकत्रित हो जायें तो भी इस प्राणी को काल से बचा नहीं सकते। यह है इस संसार की स्थिति।
स्वयं का शरण लेने की सम्मति― भैया ! अपने आपके स्वरूप में अपने को निरखो तो किसी से भीख माँगने की, मरण से रक्षा पाने की, कुछ सोचने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि यह है व सदा रहेगा। केवल इस सत् स्वरूप निजतत्त्व से रुचि हो तो कहीं कष्ट नहीं है। लेकिन अनात्मकतत्त्व में इसे प्रीति जगी है तो अपराध का फल तो भोगना ही पड़ेगा। अपने आपके स्वरूप की दृष्टि न रहे वह सब अपराध है। उस अपराध के फल में अनेक वेदनायें सहनी होती हैं। हे भाई ! इस मृत्यु से रक्षा करने वाला न तो कोई हुआ और न कभी होगा। तू अब बाह्य में शरण को न ढूँढकर अपने आपके स्वरूप की संभाल कर। यही पुरुषार्थ एक वास्तविक शरण है।