वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1155
From जैनकोष
तनुत्रयविनिर्मुक्तं दोषत्रयबिवर्जितम्।
यदा वेत्त्यात्मनात्मानं तदा साम्ये स्थितिभवेत्।।1155।।
समतापरिणाम में अपना उपयोग कब जगता है जब यह जीव अपने आपको ऐसा जानने लगता हे कि यह मैं शरीर वाला हूँ। अपना इस समय तीन प्रकार के शरीरों का संयोग है, जो यह ढांचा पड़ा है, देह लगा है। इस देह में तीन प्रकार के शरीर हैं― एक औदारिक, दूसरा तैजस और तीसरा कार्माण। कार्माण शरीर तो कर्मों के पुंज को कहते हैं। वह अत्यंत सूक्ष्म है, इंद्रिय द्वारा गम्य नहीं होता और तैजस शरीर इन औदारिक शरीरों में जो तेज लगा रहता है वह है। और औदारिक शरीर तो प्रकट दिखते हैं। ये तीन प्रकार के शरीर लगे हैं अपने। इनमें से दो तो सूक्ष्म शरीर हैं तैजस और कार्माण और यह औदारिक स्थूल शरीर है। मरण करने पर तैजस और कार्माण ये दो शरीर तो साथ जाते हैं और औदारिक शरीर यही विघट जाता है। जैसा कि अन्य लोग भी कहते हैं कि मरने के बाद इस जीव के साथ सूक्ष्म शरीर जाता है और स्थूल शरीर यही पड़ा रहता है। वे सूक्ष्म शरीर हैं तैजस और कार्माण। यह संसारी जीव अभी तब एक समय के लिए भी शरीररहित नहीं बन सका। लोग तो यह कह देते हैं कि यह शरीर छूटा, इससे आत्मा निकला कि यह आत्मा शरीररहित हो गया और कुछ लोग तो यों बताते हैं कि वह आत्मा तब तक जगत में डोलता रहता है जब तक कि उस मरने वाले के नाम की पंगत न कर दी जाय। और जहाँ तेरही हुई कि अन्य शरीर में जन्म लेने की उसे सर्टिफिकेट मिल जाती है। पर ऐसा नहीं है।
आज तक यह जीव एक क्षण भी शरीररहित नहीं रह सका। सदैव शरीर रूप रहा। जब तक वह स्थूल शरीर है तब तक तो इस शरीर में रहा और जब इस शरीर को छोड़कर चल बसा तो रास्ते में सूक्ष्म शरीर को लेकर गया। वे हैं तेजस तथा कार्माण शरीर। यदि यह एक क्षण के लिए भी शरीररहित बन जायतो फिर सदैव ही शरीररहित रहेगा। फिर शरीर मिलने का कोई कारण नहीं है। तो यह जीव आज तक भी शरीररहित नहीं रहा, और मरण भी किसका नाम है? जो पदार्थ सत् हैं उनका कभी नाश नहीं होता जीव सत् है, उसका नाश न होगा, मरण न होगा। यह शरीर है इसमें भी मूलभूत तो है परमाणु, सो वे परमाणु कभी नष्ट न होंगे। लेकिन उन परमाणुवों के मिलजुलकर जो स्कंध बनते हैं उसे भी द्रव्य कह डालते हैं और फिर यह कहा कि शरीर विघट गया, चौकी जल गयी, दरी फट गयी, तब उन स्कंधों को पुद्गल मानकर कहते हैं तो यह शक हो जाती कि पुद्गल नष्ट हो जाता है। पुद्गल भी नष्ट नहीं होता, जीव भी नष्ट नहीं होता। यह शरीर कोई पदार्थ नहीं है। ये अणु-अणु रूप जो पदार्थ हैं उन पदार्थों का समुदाय है। मात्र एक अणु ही कहीं दृश्य नहीं बन गया। तो आत्मा का मरण क्या? लोग मरण से यों ही घबड़ाते हैं कि यहाँ लोगों से कुछ परिचय बन गया है और उनमें ममता जग गयी है, अब छोड़कर जाना पड़ रहा है तो यह क्लेश है कि बड़े व्यवसाय, बड़े प्रयत्न से हमने यह धन वैभव इकट्ठा किया और आज यह सब छूटा जा रहा है, यह भाव आता है उसका क्लेश बढ़ता है। मरण में क्या हानि हुई? पर मोह लगा हे तो वह हानि समझता है और इसी कारण मरण से डरता है। तो आत्मा सद्भूत है और वह स्वभाव से खंडरूप है, समता का उसमें स्वभाव है। तो समता वह स्वभावरूप भावना बनाने से बुद्धिमान पुरुषों को एक अनुपम विलक्षण सुख उत्पन्न होता है। वह सुख क्या है? वह ज्ञान साम्राज्यरूप लक्ष्मी को प्रदान करता है। मोक्ष मिलेगा और वहाँ समस्त पूर्ण ज्ञान भी मिलेगा। किंतु वह किस उपाय से, किस आधार से मिलता है?वह आधार है समता का। रागद्वेष न हो, फिर क्या दु:ख? सबके दु:ख लगे हैं और वह किसी न किसी चिंता में हैं। मान लो इस समय शास्त्र अच्छी तरह सुन रहे हो तो नहीं जा रहा है किसी दूसरी जगह चित्त, मगर वासना में तो सब बसा हुआ है। तो जब रागभाव जगता है, कषायभाव बना होता है तो उसमें ऐसी ही खूबी है कि वह अपने आधार को छोड देता है और यह ज्ञान दरदर बाह्य पदार्थों की आशा करके भटकता रहता है। सब संकटों के दूर करने का उपाय है समतापरिणाम। सो अपने आपको इस प्रकार जानें समतापरिणाम में स्थिति और अधिकार पाने के लिए और ऐसा भाव बनायें कि मैं सर्व से रहित हूँ, राग द्वेष मोह ये जो तीन भाव हैं इनसे मैं दूर हूँ। इस प्रकार अपने आपके आत्मा को जानें तो इस ज्ञान के बल से समतापरिणाम में स्थित हो सकते हैं। विसमता में क्लेश है। समता में आनंद ही आनंद है। तत्त्वज्ञानी पुरुष का इतना प्रकट बल रहता है कि वह बाह्य पदार्थों के समागम से अपना लाभ नहीं समझता और बाह्य पदार्थों की हानि से अपनी हानि नहीं समझता। किसी भी स्थिति में सम्यग्दृष्टि पुरुष घबड़ाता नहीं है। तो समतापरिणाम में स्थिति करने के लिए अपने आत्मा को निर्दोष और मन, वचन, काय योग से रहित ऐसी अपने आत्मा की भावना करे तो उसके समतापरिणाम में स्थिति बनती है।