वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1154
From जैनकोष
य: स्वभावोत्थितां साध्वीं विशुद्धिं स्वस्य वांछति।
स धारयति पुण्यात्मा समत्वाधिष्ठतं मन:।।1154।।
जो पुरुष स्वभाव से उत्पन्न हुई समीचीन विशुद्धि को चाहता है वही समतापरिणाम से भरपूर अपने मन को बनाता है। जैसी चाह जगी परिणति उस ओरजाती है। यदि पापवृत्ति की चाह उत्पन्न हुई तो मन पाप की और बहेगा और यदि एक शुद्ध भाव की ओर दृष्टि हो, जैसा अपना सहज स्वरूप है उस रूप मानने की रुचि जगे तो वह वीतराग बनेगा, इसे शांति प्राप्त होगी। जो पुरुष स्वाभाविक आत्मा की निर्मलता चाहते हैं उनको समतापरिणाम की सिद्धि होती है और वे ही सच्चे पुण्य रूप पवित्र आत्मा हैं।