वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1207
From जैनकोष
पूजासत्कारलाभप्रभृतिकमथवा याचते यद्विकल्पै:
स्यादार्त तन्निदानप्रभवमिह नृणां दु:खदावोग्रधाम।।1207।।
जो जीव तीर्थ करके अथवा देवों के पदों की वांछा करता है अथवा शत्रुसमूह के उच्छेदन की वांछा करता है या अपने पूजा प्रतिष्ठालाभ आदिक की वांछा करता है तो वह निदानजनित आर्तध्यान करता है। वह ध्यान भी जीवों को दु:खरूपी अग्नि का तीव्र साधन है। तीर्थंकर का पद पुण्य आचरणों के समूहों से भरा हुआ है। उसकी वांछा करना भी निदान है। प्रथम तो यह है कि तीर्थंकर के बाहरी बातों के अतिशय जानकर इच्छा किया करते हैं और कदाचित् कोई तीर्थंकर का स्वरूप भी जाने और फिर भी वांछा रखे कि मैं तीर्थंकर होऊँ तो वह भी निदान की बात है। मैं संसार से मुक्त होऊँ, कर्मों से छूटूँ, यह परिणाम तो एक सामान्यपरिणाम है। वह साधारण मुनि रहकर भी मिल सकता है और उत्कृष्ट साधु अवस्था में सब एक समान है, पर तीर्थंकर पद तो एक अतिशय चमत्कारों से भरा हुआ इस लोक का पद है। उस पद के पाने की वांछा करे, उसका वैक्रियक शरीर है, कई-कई पखवारे में उनके श्वास आती हैं, भूख हजारों वर्षों में लगती है, उनका शरीर निरोग रहता है, असंख्याते वर्षों की उनकी आयु है। यह सब जानकर जो उस पद की वांछा करता है सो भी निदान है। अब निदान करते समय जीव को आकुलता रहती है, क्योंकि इच्छा करने का फल आकुलता है। मोक्ष की भी इच्छा हो तो उस इच्छा करने से मोक्ष नहीं होता। भले ही मोक्ष की इच्छा करना भला है, पर इच्छा करने से मोक्ष की प्राप्ति हो सो बात नहीं है। फिर सांसारिक पद तीर्थंकर, इंद्र, चक्रवर्ती आदि पदों की इच्छा करना निदान है। दु:ख का ही देने वाला है। यह तो साधारणसी बात है। कोई लोग तो ऐसी इच्छा कर डालते हैं कि मैं अमुक सेठ का लड़का बन जाऊँ। कोई सेठ बड़ा प्रतापी हो, कोमल हो, उसके बड़े आराम को देखकर कोई चाहे कि मैं इस सेठ का लड़का बन जाऊँ तो यह निदान है। होना न होना निदान के आधीन बात नहीं है। कोई पुण्य तो हो बड़ा और निदान छोटा बाँध ले तो बात बन भी जाती है, सो भी बन गयी, निदान करने से बनी हो सो बात नहीं है। तो निदान के समय में आकुलता रहती है और उसके फल में कोई हीन अवस्था ही मिलती है, उत्कृष्ट अवस्था नहीं मिलती। निदान न करता हो तो उसे बहुत उत्कृष्ट स्थिति मिल सकती है। शत्रुसमूह को जड़मूड़ से उखाड़ देने की वांछा अथवा अपनी पूजा प्रतिष्ठा लाभ आदि की याचना करना यह सब निदान है। निदान मुख्यतया अज्ञान अवस्था में होता है, पर कदाचित् सम्यक्त्व जग जाने पर भी गृहस्थ अवस्था में शुभ निदान संभव है। जैसे मैं विदेह में उत्पन्न होऊँ, कर्म काटकर मुक्त हो जाऊँ या ऐसी बात जो एक मुक्ति से संबंध रखती हो उनकी वांछा करना वह प्रशस्त निदान कहलाता है, पर जो वह निदान है, अप्रशस्त है वह अज्ञान अवस्था में बनता है, ज्ञान हुआ कि मैं आत्मा अपने स्वरूप मात्र हूँ और इसका स्वभाव एक केवल ज्ञाता द्रष्टा रहने का है, तो इस ही के निकट बसने की उसकी परिणति बन जायगी क्योंकि समस्त पदार्थ असार जँचते हैं तो वहाँ उसकी धुन बन सकती है। यह तो है एक मार्ग की बात। इसमें चाहा कुछ बन गया, पर कदाचित् सभी बातें चाहे मुझे आगे भी धर्म का समागम मिले; देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति मिले, साक्षात् तीर्थंकर के दर्शन मिलें ऐसी बात कदाचित् उठ भी जाती है लेकिन यह भी ठीक नहीं है। तत्त्वज्ञानी जीव तो अपने स्वरूप में ही उपस्थित होता है। आत्मस्वरूप का आलंबन त्यागकर बाह्य पदार्थों में आकर्षण बनना सो सब निदान नामक आर्तध्यान है।