वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1252
From जैनकोष
क्रूरता दंडपारुष्यं वंचकत्वं कठोरता।
निस्त्रिशत्वं च लिंगानि रौद्रस्योक्तानि सूरिभि:।।1252।।
आचार्यों ने रौद्रध्यान के ये चिन्ह कहे हैं― क्रूरता होना, चिंतातुर होना। क्रूरता का अर्थ है दूसरों पर कुछ भी बीते, दूसरों का कुछ भी नुकसान हो, पर अपने विषय स्वार्थसाधना की प्राप्ति रहे, ऐसा आशय रखकर जो बर्ताव बनता है वह क्रूरता का बर्ताव है। क्रूरता कहो, दुष्टता कहो, अपनी गरज निभाया और दूसरों का चाहे कुछ भी हो ऐसे परिणाम को कहते हैं क्रूरता। किसी पर कुछ अपराध बन जाय तो उसको कठोर दंड देना यह रौद्रध्यान का चिन्ह है। क्षमा की बात मन में न आ सके, उसे कठोर दंड दे, यह रौद्रध्यान का चिन्ह है। वैसे नीति में यह कहा है कि दंड दिलावो तो गरीब के मुख से कहलावो। और पहिले समय में जो पंगत होती थी दाल रोटी का वह बड़ा महत्त्व रखती थी। कोई जाति से बहिष्कृत पुरुष लड्डू पूड़ी की पंगत में खा ले बैठकर तो लोग उसे उस जाति में मिला हुआ नहीं मानते थे, पर कच्ची रोटी की पंगत में यदि बैठ जाय तो उसका दोष माफ कर दिया जाता था, अथवा पंगत में जब बैठते थे तो उनको घी खूब परोसा जाता था। तब की कहावत है कि घी परोसवावो तो बडे से, दंड दिलावो तो छोटे से। कोई जाति का मामला है, अपराध किया, इसको क्या दंड देना चाहिए। यदि किसी गरीब से कहलाये तो थोड़ा दंड निपट जाय। अब देख लीजिए कि ज्यों-ज्यों सामग्री अच्छी मिलती है, ठाठ-बाट मिलते हैं, धन धान्य मिलते हैं और ऐश्वर्य बढ़ता है ऐसा पुरुष रौद्रध्यान अधिक कर सकता है। तो यह रौद्रध्यान का चिन्ह है कि कठोर दंड दे। तीसरा है ठगना, छल करना, विश्वासघात करना, दूसरे का कपट से धन हर लेना यह सब है ठगार्इ। तो ठगना, बंचकपना यह रौद्रध्यान का चिन्ह है। चौथा बताया है कठोरता। चित्त नम्र न बन सके। ऐसा चिन्ह रौद्रध्यान में होता है। एक चिन्ह बताया है अंतिम निर्दयता। जो विषयों का लोभी होता है, परिग्रह के संचय की तीव्र वासना रखता है उसमें दया का वास नहीं हो पाता। कैसे दया करे? यहाँ तो लोभ सता रहा है। लोभ में दया कहाँ? तो रौद्रध्यान का चिन्ह बताया निर्दयता। ये सब चिन्ह रौद्रध्यान के आचार्य ने कहे हैं।