वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1295
From जैनकोष
सागरांते वनांते वा शैलश्रृङगांतरेऽथवा।
पुलिने पद्मखंडांते प्राकारे शालसंकटे।।1295।।
समुद्र के तट पर ध्यान किया जा सकता है क्योंकि वहाँ जलाशय बड़ी गंभीर स्थिति में रहता है और गंभीर जलाशय के समीप रहने से गंभीर आशय की सिद्धि वाले पुरुष गंभीरता का शिक्षण लेते हैं और चूँकि ऐसे उस विशाल गंभीर जलाशय के निकट रहने से चित्त बड़े विशाल भावों को लेकर रहता है तो वहाँ रागद्वेष बैर ईर्ष्या आदिक विकल्पों का अवकाश नहीं रहता, वह ध्यान की सिद्धि का स्थान हे। यों ही वन के निकट का स्थान भी ध्यानसिद्धि के योग्य है। वहाँ एकांत स्थान है, लोगों का आवागमन नहीं है, रागद्वेष के साधन वहाँ नहीं हैं अतएव उनके बीच भी, वन के निकट भी ध्यान के योग्य स्थान है। जो पर्वतों की गुफायें हैं, प्रासुप स्थान है, गिरिकंदरा आदिक भी ध्यान के योग्य स्थान माने गए हैं। जिसे आत्मा के स्वरूप की धुन बनी हे वह बाहर में शरीर का कोई विश्राम नहीं चाहता। उसके तो ऐसे स्थान में ही मन रहता है जो स्थान रागद्वेष की बाधावों से दूर रखता हो। तो ऐसा यह स्थान जहाँ निजनता है, पक्ष नहीं, रागद्वेष के साधन नहीं वह स्थान ध्यान के लिए आसन जमाने योग्य है। अथवा नदियों के किनारे पर, पुल के आस-पास कमल वनों के निकट, नदियों के किनारे, साल वृक्षों के समूह में, बड़े-बड़े दुर्ग, किला प्राकार के निकट ध्यान के योग्य स्थान होते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा का उद्धार आत्मा के स्वरूप के ध्यान से ही संभव है, अन्य कोई वैभव परिग्रह का संचय कर लेना आत्म उद्धार का उपाय नहीं है तो ऐसे आत्मा के ध्यान की सिद्धि उन्हीं स्थानों में संभव हैं जिन स्थानों में रागद्वेष के कोई साधन नहीं प्राप्त होते। जो पुरुष जहाँ जन्मा है उसका निवास स्थान ध्यानसिद्धि का कारण नहीं बन पाता। वासनाएँ, रागद्वेष, मोह के संस्कार उसके उखड़ते रहते हैं। यों ही अन्य-अन्य ऐसे परिचित स्थान ध्यानसाधना के योग्य नहीं माने गए हैं। केवल अपने आपका परिचय किया जा सके, परिचित पुरुषों पर अपनी दृष्टि न फँसे वैसा ही स्थान इस ध्यानार्थी पुरुष के योग्य हुआ करता है। जिसे आत्मउद्धार की वांछा है वह जिस किसी भी प्रकार सब ओर के विकल्पों से हटकर केवल आत्मस्वरूप के उपयोग में लगायें उनको ही ध्यान की सिद्धियाँ हुआ करती हैं। आत्मध्यान से बढ़कर और कुछ पुरुषार्थ नहीं है। आत्मा का स्वरूप जो ज्ञानमय है वह ज्ञान में बना रहे इससे बढ़कर और कुछ पुरुषार्थ भी नहीं है इनके सत्संग से, स्वाध्याय से, अनेक उपायों से योग मिलाना चाहिए ताकि आत्मा अंतरंग में प्रसन्न रहे और शीघ्र ही समस्त विपदावों से मुक्त हो सके।