वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1326
From जैनकोष
आसाद्याभिमतं रम्यं स्थानं चित्तप्रसत्तिदम्।
उद्भिन्नपुलक: श्रीमान्पर्यंकमधितिष्ठति।।1326।।
अब पद्मासन से बैठने का यह तरीका है कि प्रथम तो बायाँ पैर दाहिने पैर पर रखे, फिर दाहिना पैर बायें पैर पर रखें और उस पद्मासन के बीच में दोनों हस्तों को विकसित कमल की तरह निश्चल रखें। न मुट्ठी बाँधकर बैठें और न सीधा हाथ करके, किंतु जैसे विकसित कमल की मुद्रा होती है उसमें अपने हाथ हथेली को बनायें, और पहिले बायाँ हाथ रखें और ऊपर दाहिना हाथ रखें, यों उत्तम रमणीक देश में जाकर उस स्थान में अपने आसन को स्थिर बनाकर उस आसन के बीच पद्मासन के बीच दोनों हाथों को कमल की तरह विकसित मुद्रा में रखकर निश्चलता से बैठे। दोनों हाथ अपनी गोदी में विकसित कमल की तरह निश्चल रूप से स्थापे, यह ध्यान की मुद्रा है। ये सब आसन अनंत योगीश्वरों के द्वारा अनुभूत हुए हैं। इस आत्मध्यान के आसन में एक प्रभाव है कि बाहरी पदार्थों में दृष्टि कम रहती है और अपने अंत:परमात्मतत्त्व की दृष्टि अधिक रहती है।