वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1332
From जैनकोष
रत्नाकर इवागाध: सुराद्रिरिव निश्चल:।
प्रशांतविश्वविस्पंदप्रणष्टसकलभ्रम:।।1332।।
क्या यह लोक निश्चल है अथवा पाषाण की मूर्ति है? इस प्रकार स्थिर आसन से रहकर योगी पुरुष विषयकषायों पर विजय प्राप्त करते हैं। यदि यों ध्यानी पुरुष स्थिर आसन को लगायें और जैसे उस ध्यान की साधना करते हैं उन छोटे-छोटे साधनों का भी उपयोग करें तो फिर समीप में रहने वाले पुरुषों के द्वारा वे चित्त में प्रशांत रहते हैं। जो ध्यानी पुरुष हैं उन्हें निरखकर दूसरे लोग ऐसा चिंतन करें कि क्या यह पत्थर की मूर्ति है, क्या यह चित्राम है? इस तरह दृढ़ आसन में बैठकर फिर प्रभुभक्ति आत्मचिंतन सहित धर्मध्यान को करना चाहिए।