वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1331
From जैनकोष
विवेकवार्द्धिकल्लोलैनिर्मलिकृतमानस:।
ज्ञानमंत्रोद्धृताशेषरागादिविषमग्रह:।।1331।।
रत्नाकर की तरह तो अगाध हो, जैसे समुद्र बड़ा गंभीर है इसी प्रकार ध्यानार्थी पुरुष का हृदय बड़ा गंभीर रहता है। उसके चित्त में यों ही साधारण साधनों के द्वारा क्षोभ नहीं होता। जो समुद्र की तरह अगाध हो, गंभीर हो और मेरुपर्वत की तरह निश्चल हो, जैसे मेरुपर्वत सीधा निश्चल रहता है, उसका नाम ही इसी कारण यह पड़ा है तो जैसे मेरुपर्वत निश्चल है इसी प्रकार ध्यानी योगी का मन भी निश्चल रहना चाहिए। जैसे सभी कार्यों में, दान आदिक कार्यों में चित्त लगाया जा रहा है वैसे ही यह बात भी मुख्यतया से रखनी चाहिए कि यह आत्मस्वरूप स्वयं निश्चल है और गंभीर है और प्रशांत में समस्त विश्व है, उसके स्पंदन से रहित होकर सारा भ्रम जिनका दूर हो गया है, ऐसा निश्चल मन मेरुपर्वत की तरह अगाध बने।