वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1337
From जैनकोष
द्वादशांतात्समाकृष्य य: समीर: प्रपूर्यते।
स पूरक इति ज्ञेयो वायुविज्ञानकोविदै:।।1337।।
फिर नाभिरूप कमल में श्वास को स्थिर करके रोकना अर्थात् घड़े की तरह जल से उसे निर्भर बनाना, पूरित बनाना यह कुंभक प्राणायाम कहलाता है। कुंभक में दो बातों का समावेश है। प्रथम तो हवा का शरीर में रोकना, दूसरे नाभि के स्थान पर ही रोकना, उस स्थान से अन्यत्र न चलने देना, ऐसी विधि को कुंभक प्राणायाम कहते हैं। इस क्रिया में उपयोग कुछ विलक्षण बन जाता है और बाहरी साधनों में विषयों में चित्त नहीं फँसता है। यह है कुंभक नामक प्राणायाम। अब रेचक प्राणायाम का वर्णन करते हैं।