वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1339
From जैनकोष
नि:सार्यतेऽतियत्नेन यत्कोष्ठाच्छ्वसनं शनै:।
स रेचक इति प्राज्ञै: प्रणीत: पवनागमे।।1339।।
अभी कुंभक में जो वायु को नाभिस्थान पर रोक रखा था उस वायु को नाभि के स्थान से निकाले और हृदयकाल के मध्य भाग से उसे निकाले, फिर तालू के स्थान पर उसे कुछ विश्राम दे और उस तालू भाग से श्वास निकाले ऐसी स्थिति बने तो प्राणायाम की सिद्धि अथवा समाधि की सिद्धि समझियेगा। तालू के स्थान को देखा होगा बीच के सिर पर। जहाँ सिर के ऊपर बीच में बहुत कोमल स्थान है, अँगुली से दबावों तो कुछ दब भी जाता है, और वह स्थान ऊँचा-नीचा बराबर उठता रहता है। वहाँ से पवन का गमनागमन होता है। जब यह योगी अपने नाभि में रोकी हुई हवा को हृदय के मार्ग से लेकर तालू के स्थान तक तो विश्राम कराता है और फिर जब उस ही स्थान से धीरे-धीरे वह पवन निकलने लगती है तो वह प्राणायाम की स्थिति समझियेगा। विदित नहीं हो पाता कि जैसे नाक से श्वास निकलती है ऐसे ही सिर के ऊपर मध्यभाग से भी श्वास निकली ऐसा विदित नहीं होता, लेकिन तालू स्थान पर ऐसा प्रभाव होता है कि वहाँ से श्वास कुछ-कुछ आती है। ऐसा जब होने लगता है तब उस योगी को विलक्षण अनुभव होता है, अनहाध्वनि विदित होती है। जो कुछ न समझा हो, न जाना हो ऐसी बातें भी ज्ञान में आने लगती हैं। उस समय योगी के प्राणायाम की सिद्धि समझना चाहिए।