वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 134
From जैनकोष
स्वयं स्वकर्मनिर्वृत्तं फलं भोक्तुं शुभाशुभम्।
शरीरांतरमादत्ते एक: सर्वत्र सर्वथा।।134।।
संसारी जीव के अकेलेपन का विवरण―इस संसार में यह आत्मा अकेला ही अपने पूर्व कर्मों के सुख दु:ख रूप फल को भोगता है और अकेला ही सारी गतियों में एक शरीर से दूसरे शरीर को धारण करता रहता है, यह है इसकी चर्या। जैसे कोर्इ पूछे साहब आपकी दिनचर्या क्या है, ऐसे ही इन संसारी जीवों से पूछो तेरी चर्या क्या है? तो उनकी चर्या क्या है सुन लो। कुछ से कुछ अटपट विकल्प करना और उन विकल्प कर्मों से जो कर्म-बंधन हुआ है उसके उदय काल पर उन विषयकषाय भोगों का भोगना। करना, भोगना, मरना, जीना इसके चार बड़े प्रोग्राम हैं।
संसारी जीव की चर्या―सुन लो भैया ! यह संसारी प्राणी अपनी दिनचर्या बता रहा है। सब कुछ इन चारों बातों में आ गया―करना, भोगना, मरना, जीना। एक शरीर छोड़ा दूसरा शरीर धारण किया, यही करता चला आया यह जीव और ये चारों के ही चारों क्रम से नहीं, एक साथ ये चारों चल रही हैं। जिस समय कुछ कर रहे हैं उस ही समय भोग भी रहे हैं और प्रत्येक समय हम जीवित रहते हैं और मरते जाते हैं। जैसे आयुक्षण का उदय हुआ वह तो जीना है, पर उदय के साथ क्षण भी तो निकला, वह इसका मरना है। कोई कई काम एक साथ कर सकता है क्या? क्रम से काम करेगा। संसारी प्राणी की आप चर्या पूछते हैं ना? तो यही है वह चर्या। करना, भोगना, जीना, मरना और वे भी सब एक साथ चल रहे हैं।
करनी और भरनी में अकेलापन―अपने कर्मों से रचे हुए शुभ अथवा अशुभ फल को भोगने के लिए यह जीव अकेला ही नवीन-नवीन शरीरों को धारण करता रहता है। पाप कर्म किया, तीव्र पापकर्म किया तो उसका फल भोगने के लिए नरक जैसे नये शरीरों को ग्रहण करना होगा। पुण्यकर्म किया, विशेष पुण्यकर्म किया तो उसके फल को भोगने के लिए देव जैसे नये शरीर को ग्रहण करना होगा। फिर किए शुभ अशुभ फलों को भोगने के लिए यह जीव नये-नये शरीरों को ग्रहण करता है। शरीर पुराना हो गया, बूढ़ा हो गया, जीर्ण हो गया, इंद्रियाँ थक गयी, चल उठ नहीं पाते, ऐसी स्थिति में इस जीव को इस बात में खुशी तो होनी चाहिए थी कि अब इसे नया शरीर मिलेगा रंगा चंगा, लेकिन कोई मनुष्य इस बात में खुशी नहीं मानता। जैसा भी मिला हो उस ही शरीर उसकी शरीर में तो पर्यायबुद्धि है, अन्य बात कैसे सोच सकें? बाह्य बात कुछ भी सोचे उससे उठता क्या है? जैसा यह चाहता वैसा होता कहाँ है? किस लिए शुभ अशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए इस जीव को नया शरीर धारण करना होता है। वह भी अकेले। अकेला ही करना, अकेला ही भोगना, अकेले ही शरीर ग्रहण करना और अकेला ही इस शरीर से विदा हो जाना।
जीव का एकाकित्व―यह एकत्वभावना का प्रकरण है। सर्व भावनाओं में सीधी सुगम बलशाली यह एकत्वभावना है। एकत्व के संबंध में हम बहुत-बहुत गहरा विचार तक बना सकते हैं। यह अकेलापन तो एक मोटेरूप से व्यवहार में बताया है। यह आत्मा स्वयं एकत्व स्वरूप को लिए हुए है वह अकेला स्वरूप कैसा है? जैसा यह सहज है, ज्ञान ज्योतिर्मय है, ज्ञान शक्तिस्वरूप है, तैसा यह अकेला है। इसमें उपाधि का बंधन नहीं है। स्वभावदृष्टि से तको तो यह आत्मा केवल एक अपने स्वरूपमात्र है। ऐसी एकत्व की दृष्टि जिन योगीश्वरों के जगी है वे इस एकत्व की रुचि के प्रसाद से सर्व उपाधियों को समाप्त कर डालते हैं।