वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1360
From जैनकोष
त्वरित: शीतलोऽधस्तात्सितरुक द्वादशांगुल:।
वरुण: पवनस्तज्ञैर्वहनेनावसीयते।।1360।।
अब जलमंडल की वायु का विशेष स्वरूप कहा जा रहा है। जो शीघ्र बहने वाली वायु है और कुछ नीची बहती है, जब कभी देखा होगा कि नासिका छिद्र से कभी वायु ऊपर से बहती है, कभी नीचे से बहती है तो जो वायु कुछ नीलाई को लिए हुए बहती हो, शीतल से, शीघ्र बहने वाली हो, उज्ज्वल हो, शुक्ल वर्ण उस वायु को माना है और जिसके बहाव का प्रभाव 12 अंगुल तक पड़ता हो ऐसे पवन को पवन के जानने वालों ने ‘‘वरुण पवन’’ निश्चित किया है। इन चिन्हों से पहिचानना चाहिए कि यह जलमंडल है। इसकी मुख्य पहिचान के लिए कुछ ये बातें बताई गई हैं कि जो जरा शीघ्र बहता हो, जो पवन कुछ सच्चाई को लिए बहता हो, जिसका प्रभाव 12 अंगुल तक हो अर्थात् नासिका से 12 अंगुल तक दूर कुछ-कुछ विदित होता है कि यहाँ तक उस हवा का प्रभाव है वह जलमंडल की वायु कहलाती है।