वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1361
From जैनकोष
तिर्यग्वहत्यविश्रांत: पवनाख्य: षडंगुल:।
पवन: कृष्णवर्णोऽसौ उष्ण: शीतश्च लक्ष्यते।।1361।।
जो पवन सब तरफ तिर्यक बहता हो, विश्राम न लेकर निरंतर बहता ही रहे, 6 अंगुल दूर आये, शीत हो वह पवनमंडल वायु कहलाती है। जैसे हवा सब तरफ से बहती है इसी तरह नासिका के छिद्र में केवल एक जगह से श्वास नहीं निकलती हो, किंतु समस्त जगहों से अथवा जल्दी-जल्दी बदल-बदल कर सब ओर से वायु निकलती हो तो वह वायु पवनमंडल की वायु कहलाती है। इसमें शीघ्र पहिचानने के लिए कुछ पहिचान यह है कि प्रथम तो यह बात है कि नासिका के छिद्र से वायु तिरछी बहती हो, सर्व ओर से बहती हो। दूसरी बात यह है कि विश्राम न लेकर निरंतर बहती रहती हो। तीसरी पहिचान है कि जिसका प्रभाव तीन काल तक हो। वर्ण इसका कृष्ण कहा गया है, स्पर्श इसका शुक्ल भी होता है। ऐसी जो श्वास है वह पवनमंडल की श्वास कहलाती है।