वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1367
From जैनकोष
सिद्धमपि याति विलयं सेवा कृष्यादिकं समस्तमपि चैव।
मृत्युभयकलहवैरं पवने त्रासादिकं च स्यात्।।1367।।
यह एक स्वर विज्ञान की बात चल रही है। अपने ही स्वर की परख से अपने शुभ और अशुभ कार्य जाने जाते हैं। जब वायुमंडल का पवन चल रहा हो तो सिद्ध भी कार्य नष्ट हो जाते हैं। जिन कार्यों में प्रयत्न करने से बहुत कुछ सफलता भी मिलने वाली है तब भी पवनमंडल में उन कार्यों को किया जाय तो वे सब धोखा दे देते हैं तो पवनमंडल में कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। सेवा कृषि आदिक समस्त कार्य सिद्ध होते हुए भी विलीन हो जाते हैं और मृत्यु का भय कलह बैर त्रास आदिक उस ध्यानसाधना वाले पुरुष के हुआ करती है, उससे बाहर के जीवों के कुछ शुभ अशुभ जान लिए जाते हैं।