वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1376
From जैनकोष
व्यस्त:प्रथमे दिवसे चितोद्वेगाय जायते पवन:।
धनहानिकृद्वितीये प्रवासद: स्यात्तृतीयेऽह्नि।।1376।।
इष्टार्थनाशविभ्रमस्वपदभ्रंशास्तथामहायुद्धम्।
दु:खं च पंच दिवसै: क्रमश: संजायते त्वपरै:।।1377।।
प्रथम दिन में अर्थात् शुक्लपक्ष के प्रतिपदा के दिन उस दिन विपरीत श्वास चले अर्थात् चलना चाहिये बायें स्वर से उदयकाल में और चलती हो दाहिने स्वर से तो चित्त को उद्वेग होगा। यह उसका फल है। अब शुक्लपक्ष के दूसरे दिन विपरीत श्वास चले अर्थात् चलना तो चाहिए बामस्वर से और चले दाहिने स्वर से तो धन की हानि को सूचित करता है। शुरू पक्ष के तृतीया के दिन यदि श्वास विपरीत चले अर्थात् चलना तो चाहिए बामस्वर से प्रात:काल और चले दाहिने स्वर से तो परदेशगमन होगा। इस प्रकार की सूचना समझना चाहिए। इसके पश्चात् 5 दिन तक विपरीत चले तो भ्रम से इष्टप्रयोजन का नाश विभ्रम होना, अपने पद से भ्रष्ट होना, महान युद्ध होना, दु:ख होना ये 5 फल होते हैं, इसी प्रकार अगले 5 दिन का फल विपरीत अर्थात् अशुभ जानना। ये सब बातें बताई जा रही हैं, पर इनका प्रयोग मुमुक्षु ज्ञानी पुरुष किया नहीं करते हैं। जो होना है सो होता है। जो होना है वह क्या उसके जान लेने से टल जाता है? जैसे पुराणों में बहुत सी घटनाएँऐसी आयी हैं कि नेमिनाथ स्वामी के संबंध में यह बात जाहिर हुई थी कि 12 वर्ष में द्वारिकापुरी भस्म होगी, जरतकुमार के द्वारा श्रीकृष्ण की मृत्यु होगी। जो-जो कुछ बातें कही गई थी उन सब बातों को मिटाने के लिए लोगों ने तरकीब सब बनाये। जरतकुमार उस नगर से भाग गए। न मैं यहाँ रहूँगा और न मेरे निमित्त से नारायण की मृत्यु होगी। भाग गया किसी अपरिचित जंगल में। और द्वीपायन मुनि के द्वारा यह द्वारिकापुरी भस्म होगी, ऐसा सुनने पर द्वीपायन मुनि भी 12 वर्ष के लिए नगर से चले गए, पर हुआ क्या कि द्वीपायन मुनि आ गए, लोंध का महीना न गिन सके और हुआ वही जो कहा था।जरतकुमार जिस जंगल में था वहाँ नारायण पहुँचे। सभी लोग बताते हैं कि जरतकुमार के हाथ से श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई। तो हुआ क्या जो होना था। तो इस स्वर विज्ञान में पड़ने से लाभ क्या? इसी तरह बहुत से लोग दिशाशूल से बचना या अन्य-अन्य बातें करते हैं, उनकी ओर चित्त देना ही ठीक नहीं है। अब कहो मुकदमा हो इलाहाबाद का सोमवार को और मान लेवे कि शनिवार को दिशाशूल के कारण न जायें तब तो मुकदमा रह जायगा ना, तो यह तो एक विरुद्ध बात हो जायगी। बल्कि दिशाशूल के दिन चलने से फायदा यह है कि बहुत से लोगों के रेल में न जाने से जगह अच्छी मिल जाती है। यह सब सोचना चित्त को परेशानी देना भर है। जो बात है उसका थोड़ा वर्णन चल रहा है। भारी फूँकफूँककर कोई चले इन बातों को सोच सोचकर तो उसका दिमाग तो इसी में परेशान रहेगा। चित्त प्रसन्न होना, निर्मल होना और फिर उस निर्मल चित्त की दशा में जो बात जिस समय करने की है करें तो वह एक उचित कर्तव्य है, लेकिन कोई इस प्रकार से परीक्षण करे तो ये भी बातें हैं जिनको यहाँ प्रकरणवश कहा जा रहा है।