वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1378
From जैनकोष
वामा सुधामयी ज्ञेया हिता शश्वच्छरीरिणाम्।
संहर्त्री दक्षिणा नाडी समस्तानिष्टसूचिका।।1378।।
जीवों की बाईं नाड़ी चंद्रस्वर बायां स्वर अमृतमय और हितकारी समझना। यह एक सामान्यतया बताया जा रहा है। विशेष प्रसंग में तो और-और तरह के नियम हैं पर एक साधारण सी बात कही जा रही है और दाहिनी नाड़ी नासिका के दाहिने छिद्र से श्वास का आना-जाना अहित के करने वाली है। इस प्रसंग में एक बात यह समझना है कि जब कोई योगी ध्यानी पुरुष ध्यान में निर्विकल्प तल्लीन होता है उस समय उसके स्वर दोनों ओरसे समान हो जाते हैं। उसे समस्वर कहते हैं और वह समस्वर भी कुछ विलक्षणता को लिए हुए होता है। इसका वर्णन संभवत: कहीं आगे के श्लोकों में आयगा तो इस स्थान में योगी ध्यानी पुरुष की बात कही जा रही है कि उस समय स्वर का श्वास का क्या प्रभाव होता है?