वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 138
From जैनकोष
सहाया अस्य जायंते भोक्तुं वित्तानि केवलम्।
न तु सोढुं स्वकर्मोत्थं निर्दयां व्यसनावलीम्।।138।।
विपदा में साथी का अभाव―इस जीव के सहायक हो तो जाते हैं यहाँ, वे केवल धन आदिक भोगों को भोगने के लिए ही सहायक होते हैं, परंतु अपने कर्मों से उपार्जित किए हुए इन निर्दय दु:खों के समूहों को सहने के लिए कोर्इ साथी नहीं होता। जैसे कि लोक में कहते हैं कि सुख में अनेक साथी होते हैं, दु:ख में कोई साथी नहीं होता है। यह बात सब जीवों की है। माता भी पुत्र के सुख में साथी है, उसके दु:ख में साथी नहीं है। हालांकि यह देखा जाता है कि पुत्र के कष्ट में माता बड़ी विह्वल होती है, उसके दु:ख का निवारण करती है लेकिन वहाँ भी यह देखो कि माँ केवल अपने कषायों के अनुकूल भाव बनाकर जिससे वह सुखी रह सके वैसा ही यत्न करती है, पुत्र के दु:ख को रंच भी बांट नहीं सकती है और इस पद्धति से कोई किसी के सुख में भी साथी नहीं है पर लोकव्यवहार में जैसे कि लोग सम्मिलित हो जाते हैं सुख में, यों कोई दु:ख में सम्मिलित नहीं होते हैं। तब यों प्रसिद्ध ही कहा कि सुख में सब साथी हैं दु:ख में कोई नहीं।
पर से घृणा न करके उसके ज्ञाता द्रष्टा रहने का अनुरोध―संपदा के सब साथी हैं, विपदा का कोई साथी नहीं है। यह जीव दु:ख को अकेला ही भोगता है यह बात नि:संदिग्ध है, तथापि यह दुनिया का चरित्र घृणा करने के योग्य नहीं है, किंतु इसके ज्ञाताद्रष्टा रहना चाहिये। कोई जीव भी मेरे क्लेश का साथी नहीं होता, ऐसा सोचकर किसी जीव से जुगुप्सा नहीं करना है, ये बड़े खराब लोग हैं, ये मेरे साथी नहीं हो रहे हैं, ऐसी घृणात्मक दृष्टि नहीं बनाना है किंतु उस स्वरूप का आदर करना है जो स्वरूप यह बतलाता है कि कोई भी पदार्थ अपने स्वरूप से, प्रदेशों से बाहर कुछ काम कर ही नहीं सकता।
एकत्वभावना की दिशा―कोई जीव किसी भी पर-परिणमन का साथी न होगा, ऐसे कथन में हमें वस्तुस्वरूप का शुद्ध दर्शन करना है, किंतु किसी जीव से घृणा नहीं करनी है। अगर ऐसा सोचकर कि कोई भी जीव मेरे दु:ख में साथी नहीं हो रहे घृणा करने लगे दूसरे जीवों से तो क्या यह मैं दूसरों के द्वारा घृणा के योग्य न होऊँगा। जब मैं दूसरों को खुदगर्ज देखकर उनसे घृणा करूँ तो इसका अर्थ है कि सभी लोग मुझे भी देखकर मुझसे भी घृणा करने लगें। घृणा की बात ग्राह्य नहीं है किंतु एक स्वरूप का बोध कर लो। स्वरूप ही ऐसा हे कि कोई पदार्थ अपने परिणमन को छोड़कर अन्य का परिणमन नहीं करता अथवा अपना भी परिणमन करे और अन्य का भी परिणमन करे ऐसा भी नहीं होता। सब जीव सब पदार्थ अपने आपका परिणमन करने में रत हैं, ऐसा निरखो और अपने आपको भी ऐसा देखो। अपना ही परिणमन करने में सब समर्थ हैं, इस दृष्टि में ही वास्तव में एकत्व भावना आ जाती है।
एकत्वभावना में उपादेय तत्त्व―यह मैं आत्मा अकेला हूँ ऐसी एकत्व भावना में यह जीव आनंदधाम निज अंतस्तत्त्व को प्राप्त होता है। भावनाओं के स्वरूप को समझने के लिए दु:ख में कोई साथी नहीं है, ऐसा कहा जाता है। यह जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही दु:ख भोगता है। इस जीव का कभी भी कोई सगा साथी नहीं है ऐसा एक सुगम वैराग्य के लिए कहा है। एकत्व भावना में यही तो सुविदित होता है कि यह जीव मात्र अपने प्रदेशों में अपने आपका परिणमन करता है, चाहे वह मोक्ष-परिणमन का परिणमन हो, अनंतज्ञान का, अनंत सुख का परिणमन हो और चाहे संसार का दु:खरूप परिणमन हो, प्रत्येक परिणमन प्रत्येक जीव में प्रत्येक पदार्थ में स्वयं के ही साधन से स्वयं के ही आधार में हुआ करता है, कोई अगर मेरे दु:ख में साथी नहीं है तो नाराज होने की क्या बात है, जैसा स्वरूप है ऐसा उसे जानो।