वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1383
From जैनकोष
ज्ञातुर्नाम प्रथमं पश्चाद्यद्यातुरस्य गृह्लाति।
दूतस्तदेष्टसिद्धिस्तद्वयस्ते स्याद्विपर्यस्ता।।1383।।
यह बहुत काम वाली बात चली जा रही है। कोई पुरुष जो बातचीत करने वाला हो वह यदि किसी विपरीत रोगी दु:खी के बाबत में कुछ पूछे तो उसके पूछने का ढंग यदिऐसा हो कि पहिले तो इस ज्ञानी का नाम ले, पीछे फिर उस आत्मा का नाम ले उसमें इष्ट की सिद्धि होती है। जैसे कोई किसी बड़े के प्रति पूछे वैद्य जी हमारे अमुक को अमुक रोग है तो ठीक होगा या नहीं तो उत्तर उसका भला आयगा और कोई यों पूछे कि मेरा मुन्ना बीमार है बतावो वैद्य जी ठीक होगा कि नहीं? तो उसमें बताया है कि नहीं ठीक होगा। पहिले तो उस बड़े पुरुष का नाम लेकर पूछना चाहिए तो यह एक स्वरविधि से एक उपाय बताया है। इसके विपरीत रोग का नाम पहिले ले और उस बड़े आदमीका नाम पीछे ले तो उसमें इष्ट की सिद्धि नहीं कहा है। जैसे लोकव्यवहार में भी संभवत: यही विधि है कि पहिले बड़े का नाम ले, पीछे बात रखे, इसमें यद्यपि अभी स्वरविज्ञान की बात नहीं आयी लेकिन उसी से संबंधित केवल स्वरविज्ञान का अंग इस छंद में कह रहे हैं।