वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 139
From जैनकोष
एकत्वं किं न पश्यंति जडा जन्मग्रहार्दिता:।
यज्जन्ममृत्युसंपाते प्रत्यक्षमनुभूयते।।139।।
एकाकित्व का समर्थन―यह जड़ जीव, सब व्यामोही प्राणी संसाररूपी पिशाच से पीड़ित हुआ अपनी एकता को क्यों नहीं देखता है? जन्ममरण के प्राप्त होने पर सब ही जीव यों दिखाई पड़ते हैं, सभी मनुष्य प्राय: अपनी आँखों से देखते रहते हैं कि यह जन्मा तो यह भी अकेला ही जन्मा। यह मरा तो यह भी अकेला ही मरा। उनके जन्म मरण में कोई साथी है क्या? किसी के दो बच्चे भी एक साथ पैदा हों, जिसे कहते हैं जुड़वाँ, तो दो बच्चे पैदा हो गए एक साथ, इस पर भी वे साथ नहीं जन्में किंतु अपना अपना अलग-अलग जन्म लिया। यों ही किसी प्रसंग में 50 आदमी एक साथ मर जाते हैं तो उसका अर्थ यह नहीं है कि देखो सभी एक साथ मरे हैं अरे मरने में भी कोई साथ नहीं निभाता मर गये सब अपनी-अपनी आयु का क्षय होने पर, चाहे एक ही मिनट में पचासों मरे हैं पर मरे सभी अकेले-अकेले ही हैं। कोई किसी का साथ निभाकर नहीं मरा। तो जो बात आँखों देख रहे हैं, प्रत्यक्ष में समझ रहे हैं उस बात पर विश्वास क्यों नहीं रखते?
सर्वपरिणतियों में जीव के एकाकित्व का दर्शन―प्रत्येक स्थिति में यह जीव अकेला है और सर्वप्रकार से अकेला है। जब इसने संसारभाव किया, रागभाव किया और उस रागभाव के कारण जो क्लेश क्षोभ अनुभूत हुआ वह सब परिणमन भी अर्थात् यह उपरोक्त परिणमन इस उपराग करते हुए जीव ने स्वतंत्र होकर किया। भले ही इस राग के उत्पन्न होने में परउपाधि निमित्त है, पर उपाधिभूत निमित्त की परिणति लेकर तो यह जीव रागरूप नहीं परिणमा। यह मात्र अपने ही परिणमन से रागरूप परिणमा और रागरूप परिणमकर अपने आपको ही रागरूप बनाया। अपने ही परिणमन से रागरूप बना, अपने ही लिए रागरूप बना, अपने में बना। सर्व तरफ से इस जीव में एकता तो बनी हुई है।
स्वरूपस्वातंत्र्य के विवेक में लाभ―अहो खेद की बात है कि इस अज्ञान पिशाच से प्रेरे हुए ये संसारी प्राणी अपनी एकता को नहीं निरखते। जब भेद विज्ञान जग जाय तो उस विवेक के काल में भी इस जीव ने जो कुछ स्वच्छ परिणमन किया, ज्ञानरूप परिणमन किया वह भी स्वतंत्र होकर किया। अपने ही साधन से, अपने ही प्रयोजन में, अपने ही आधार में, अपने ही आपको इस प्रकार परिणत कर लिया। यह जीव सर्वस्थिति में एकाकी है, इसका कोई सहाय नहीं है, साथी नहीं है। इस एकत्वस्वरूप के आदर करने से मोह पिशाच दूर भाग जाता है, अज्ञान अंधकार समाप्त हो जाता है और उस ज्ञानानुभूति के प्रसाद से स्वाधीन आनंद जागृत होते हैं। अत: हे आत्मन् ! अपने आपको शांति के मार्ग में ले जाना चाहते हो तो प्रथम कदम यह ही है कि अपने आपको अकेला तो समझ लो। है यह अकेला, इस कारण अकेला समझो।