वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 140
From जैनकोष
अज्ञातस्वरूपोयं लुप्तबोधादिलोचन:।
भ्रमत्यविरतं जीव एकाकी विधिवंचित:।।140।।
अविदितस्वरूपता का फल―जिसने अपना स्वरूप नहीं जाना है, जिसके ज्ञाननेत्र लुप्त हो गए हैं, ऐसा यह जीव इन कर्मों से ठगा जाकर अकेला ही निरंतर इस संसार में परिभ्रमण करता है। अपने आपके इस अकेलेपन को न निरखने से ये सारी विपदायें अपने पर लग गयी हैं। मैं दूसरे का कुछ कर सकता हूँ, ऐसा मिथ्या आशय भी एकत्व भावना को लुप्त कर देता है। मैं किसी का कुछ कर सकता हूँ, ऐसा आशय रखने वाले ने अपना एकत्व जाना कहाँ? यदि वह आत्मा अपने एकत्व को जानता होता तो कर्तृत्व का आशय न कर सकता था। प्राय: करके सभी संसारी जीव बुद्धि के दोष से ही संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं। क्या है स्वयं में, यथार्थ बात विदित होनी चाहिए।
पर को प्रसन्न करने की आवश्यकता―भैया ! दुनिया के कथन पर दृष्टि डालें तो हम कहाँ तक अपना लक्ष्य पूरा कर सकते हैं? किसी भी जीव पर सभी जीव कभी खुश नहीं हो सकते, किसी जगह हो। भले ही परिजनों में से अधिकांश लोग उसके अनुकूल हों, पर ऐसा कोई व्यक्ति न मिलेगा जिस व्यक्ति के अनुकूल सभी पुरुष हों। आजकल के नेताओं के प्रति निहार लो। अन्य बात तो जाने दो, जो प्रभु हैं, सर्वज्ञ हैं, निर्दोष हैं उनके प्रति भी सब लोगों का सन्मान भाव नहीं जगता, सब अच्छा तो कहते ही नहीं। कितने ही लोग तो स्पष्ट कहने लगते कि देखो भगवान ने इसे मार डाला। तो जब भगवान तक के भी ये सब जीव अनुकूल नहीं हुए तो छुद्र जन्म लेने वाले जीव ये कोशिश करें कि मुझ पर सब जीव प्रसन्न हो जायें, सब मनुष्य मुझे समझने लगें, ऐसी बुद्धि हो तो वह बुद्धि नियम से अनर्थ ही करने वाली है।
भोक्तृत्वबुद्धि की अनर्थकारिता―यह भोक्तृत्वबुद्धि भी अनर्थकारिणी है। मैं अमुक को भोगता हूँ, कपड़ा चारपाई वैभव को मैं भोगता हूँ, ऐसी बुद्धि में भी क्लेश पड़ा हुआ है क्योंकि उपयोग तो अज्ञान की ओर बह रहा है। यह मैं केवल अपने आपमें जो वितर्क उत्पन्न हुए उन वितर्कों के कारण जो स्थिति होनी चाहिए सुख की, दु:ख की, आनंद की, मैं केवल अपने आनंदगुण के परिणमन को ही भोगता हूँ। जहाँ ऐसी एकत्व दृष्टि नहीं रहती और पर-की ओर आकर्षण रहता है उस जीव का टिकाव कहीं नहीं हो सकता। जिस पदार्थ में अपना टिकाव लगाया वह पदार्थ ही टिकाऊ नहीं है और फिर उस पर किया हुआ उपयोग भी टिकाऊ नहीं है इसी कारण पर के आलंबन में भी आनंद नहीं प्राप्त होता।
स्वरूप के परिचय व अपरिचय का फल―जो पुरुष निजस्वरूप को जान ले और जानकर उस ही तत्त्व भूत स्वरूप का ज्ञान बनाये रहे तो ऐसे ही अंत: आचरण के कारण यह जीव शांत हो सकता है, संसार के संकटों को दूर कर सकता है। लेकिन ऐसा न करके यह जीव कर्मों से ठगाया हुआ, रागद्वेष मोह से ठगाया हुआ होकर इस संसार में निरंतर परिभ्रमण करता रहता है। कोई परिणमन की हद है क्या कि किस दिन से किस क्षण से परिभ्रमण हो रहा है। यदि कोई दिन क्षण नियत कर दे तो इसका अर्थ यह है कि इसके पहिले मैं संसारी न था, विभाववान न था। संसारी न था तो किसी भी प्रकार ये विभाव आ ही नहीं सकते थे।
द्रव्यकर्म व भावकर्म का अनादि निमित्तनैमित्तिक संबंध―कर्म का व भाव का अनादि से ही ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध चला आ रहा है, क्या बताया गया था, कर्म था पहिले या जीव का भाव था पहिले? कैसी विचित्र अनादि संतति है? चूंकि भाव हुए बिना कर्म नहीं होते अतएव भाव पहिले थे और कर्म बाद में किया और बढ़ जावो, कर्मों के उदय बिना ये भाव नहीं हुआ करते, अतएव कर्म पहिले थे फिर उसके उदय में भाव हुए। ये कर्म भाव कर्मपूर्वक हुए। वे भाव भी द्रव्यकर्मपूर्वक हुए, यों अनादि से ही यह चक्र चला आ रहा है। तब इसमें हमें कोई समाधान नहीं हो सकता कि पहिले भाव थे या कर्म थे। उसका ही अर्थ यह हुआ कि यह सब अनादि से चला आ रहा है। जैसे मनुष्य के पिता, ये अनादि परंपरा से चले आ रहे हैं। कोई पिता ऐसा नहीं है कि जो पिता के बिना ही उत्पन्न हो गया हो।
संकटमोचिनी भावना―विधि से ठगाया जाकर कर्मों से बद्ध होकर यह जीव इस संसार में अकेला ही अज्ञानी मोही विषयासक्त बन बनकर यह जीव भ्रमण करता चला आ रहा है। उस समस्त भ्रमण संकट से छुटकारा पाने का सुगम उपाय है यह एकत्वभावना। अपने आपको अकेला सोच लो, सारे झंझट लो समाप्त हो गए। यों एकत्वभावना के प्रसाद से यह जीव मोक्ष मार्ग में बढ़ता है और शांति का अधिकारी होता है। हम आप भी अपने को अकेला ही सोच लेंगे तो इस चिंतवन से अनेक संकट दूर हो जायेंगे।