वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 144
From जैनकोष
अयमात्मा स्वभावेन शरीरादेर्विलक्षण:।
चिदानंदमय: शुद्धो बंधं प्रत्येक वानपि।।144।।
बद्ध दशा में भी जीव की स्वभावशुद्धता―पदार्थ का अपने आपका स्वरूप जैसा है वैसा ही निहारने पर यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि प्रत्येक पदार्थ परपदार्थ से अत्यंत न्यारा है। जैसे पानी में मिट्टी का तेल डाल दिया जाय तो यद्यपि ये दोनों एक बर्तन में हैं लेकिन तेल के स्वभाव में पानी प्रवेश नहीं करता, पानी के स्वभाव में तेल प्रवेश नहीं करता। अपने-अपने सत्त्व को लिए जुदे-जुदे पदार्थ हैं, ऐसे ही यह आत्मा यद्यपि आज बंध के प्रति एक बन रहा है, शरीर में वही बस रहा है, जहाँ देह है, फिर भी यह देह से अत्यंत न्यारा है। यह आत्मा चिदानंदस्वरूप है और यह शरीर न चित्स्वरूप है, न आनंदरूप है। यों शारीरिक समस्त पदार्थों से विलक्षण यहाँ मैं आत्मा चिदानंदस्वरूप शुद्ध हूँ, ऐसी भावना रखने वाले पुरुष के अत्यंत भावना बनती है।
एकत्व व अन्यत्व का भावना का लक्ष्य―इस प्रसंग से पहिले एकत्व भावना कही थी कि मैं अपने आपमें एक हूँ, अकेला हूँ। सब स्थितियों में, सुख पाता हूँ तो अकेला, दु:ख पाता हूँ, तो अकेला, जन्म लूँ मरण करूँ तो अकेला, संसार में रुलूँ, संसार से छूटूँ तो अकेला, सर्व स्थितियों में यह अकेला ही अपने आपका अनुभव करने वाला होता है। यहाँ यह अन्यत्व भावना चल रही है। यह मैं अकेला सर्वपदार्थों से न्यारा हूँ। जहाँ शरीर भी अपना नहीं है वहाँ अपना और दूसरा कौन हो सकता है? घर संपदा परिजन ये तो प्रकट पराये हैं। दोनों भावनाओं में इस लक्ष्य पर दृष्टि दिलाई गई है कि आत्मा का शरण केवल अपने आप है। अपना शुद्ध आचरण है तो यह सुख पायेगा, अपना अशुद्ध आचरण है तो यह क्लेश पायेगा। भले ही कुछ पुण्य का उदय हो और अशुद्ध आचरण ढक जाय, लेकिन यह गाड़ी कहाँ तक चलेगी?
पुण्य पाप का फल―संसार के जीव पुण्य और पाप के अनुसार ही खोटा और बुरा फल भोगा करते हैं। जब जीव के पुण्य का उदय होता है तो सांसारिक सुखों के साधन पता नहीं कैसे किस उपाय से एकत्रित हो जाते हैं और जब पाप का उदय होता है तो पता नहीं, विपदाओं के साधन विकसित उपाय से कैसे बन जाया करते हैं? एक बहुत प्रसिद्ध दृष्टांत है―
यदालक्ष्मी: समायाति नारिकेलफलांबुत्। यदा विनश्यते लक्ष्मीर्गजभुक्तकपित्थवत्।।
जब लक्ष्मी आती है तो नारियल के फल में पानी जैसे कहाँ से आ जाता है? नारियल का छिलका अत्यंत कठोर है, उसमें सूई भी प्रवेश नहीं कर सकती, किंतु सैरों पानी उसमें कहाँ से आ जाया करता है? इसी प्रकार जब जीव के पुण्य का उदय है तो लक्ष्मी जिन किन्हीं भी उपायों से आ जाती है और जब विनष्ट होती है लक्ष्मी, पाप का उदय आता है तो आप बतलाओ हाथी कैथ खा लेता है और एक दो दिन बाद जब लीद करता है तो वह कैद बिल्कुल हलका हो जाता है, उसमें न कहीं छेद हुआ, न कहीं दरार, किंतु सारा का सारा सर कैसे निकल जाता है? कहाँ चला जाता है? कहाँ खिंचकर बाहर हो जाता है, ऐसे ही ये साधन पाप के उदय में कैसे विलीन हो जाते हैं, इसको कोई नहीं जानता।
पुण्य पाप दोनों से आत्मकल्याण का अभाव―ये संसार के ठाठ पुण्य और पाप के खेल हैं, लेकिन श्रद्धा यही बनानी चाहिए कि न तो पुण्य से मेरे आत्मा का भला है और न पाप से मेरे आत्मा का भला है। पाप से तो भला है ही नहीं, सारा जग कहता है किंतु पुण्य से भी क्या भला होगा? पुण्य बँधा तो संपदा मिली, अनाप सनाप भाव बने, मान जगा, कषाय जगी, आत्मदृष्टि का अवसर न मिला तो उन कषायवृत्तियों में रह रहकर दुर्गति जाना पड़ेगा। पुण्य से काहे का भला, पाप से तो भला है ही नहीं। आत्मा का भला तो धर्म से है। तीनों बातें जुदी-जुदी हैं―पुण्य, पाप और धर्म। पाप तो अशुभ का नाम है। पुण्य प्रभुभक्ति, देवभक्ति, परोपकार, शील, तपश्चरण इन शुभ क्रियावों का नाम है और धर्म―यह मैं आत्मा सबसे न्यारा ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ, ऐसी रुचि जगना, दृष्टि बनना और ऐसा ही समझने में जानने में स्थिर रहना ऐसी जो एक परमार्थ पुरुषार्थ की वृत्ति जगती है उसका नाम है धर्मपालन। पाप से मिलती है नरकादिक दुर्गति पुण्य से मिलते हैं स्वर्गादिक सद्गति और धर्म से मिलता है सदा के लिए सांसारिक संकटों से मुक्ति। जैसे अपने आपको अकेला निरखने से इन जीव को शांति का अनुभव होता है ऐसे ही सबसे न्यारा अपने को निरखने से शांति का अनुभव होता है।
काल्पनिक क्लेशों का कर्षण―जगत् के जीवों को और दु:ख है क्या? केवल लगाव। संबंध मान लिया, बस इस ही में क्लेश उत्पन्न हो जाते हैं। जहाँ लगाव है वहाँ बंधन है, जहाँ लगाव नहीं वहाँ बंधन नहीं। वस्तुत: वहाँ भी कोई बंधन नहीं। सिर्फ कल्पना से लगाव मान लिया है इसलिए वहाँ खेद होता है। इस जीव की विजय शुद्ध परिणाम रखने में है। बाह्य पदार्थों में आसक्त होकर रागी मोही बनकर उनकी व्यवस्था बनाने से आत्मा का उत्कर्ष नहीं है, किंतु जिस विशुद्ध परिणाम के प्रताप से सर्व योग्य साधन मिले है उन विशुद्ध परिणामों को बनाये रहने में ही आत्मा की विजय है। कुछ भी स्थितियाँ आयें आत्मा की निर्मलता में बाधा न डालें। कितना ही दु:ख होवे, कितना ही अनिष्ट वियोग होवे, सर्व स्थितियों में सहनशीलता होनी चाहिए। कहीं कष्ट से घबड़ाकर अपनी धर्मरुचि को न छोड़ दें।
सुख, दु:ख, बंध, मोक्ष की एक-एक सामान्य पद्धति―धर्म नाम आत्मा के स्वभाव के विकास का है। व्यवहार में जो भिन्न-भिन्न देव माने गए हैं, गुरुजन हैं, शास्त्र हैं, ये अनेक आश्रय हैं जो आश्रय एक इस धर्मभाव में लगाने के लिए हैं ये आश्रय स्वयं धर्म नहीं हैं और इस व्यवहारिक आश्रय का पक्ष करना भी एकांत करना भी इस जीव के लिए हितप्रद नहीं है। उनसे काम निकाल लो। वीतरागता और सर्वज्ञता की ओर झुकाव बने, उसके लिए उनकी भक्ति और सेवाओं से अपना काम निकाल लें। धर्म का पालन तो रागद्वेष रहित होकर ज्ञाताद्रष्टा रहने में है। जैसे मनुष्य सब एक विधि से उत्पन्न होते हैं चाहे हिंदू हो, चाहे मुसलिम हो, ईसाई हो, सभी एक स्थिति में पैदा होते हैं, और एक विधि से मरते हैं। इस प्रकार सुख भी हम संसार में मानते हैं तो एक विधि से मानते हैं और दु:ख भी एक विधि से मानते हैं। जो बात असल है, जो बात वस्तु में है उसे कोई मिटा नहीं सकता। ऐसे ही समझो कि जगत् में जितने भी आत्मा है उन सब आत्माओं को संसार में रुलने का कारण यह एक ही विधि है। परपदार्थों का ग्रहण करना, परपदार्थों से हित मानना, परपदार्थरूप यह मैं हूँ, ऐसी प्रतीति बनाना ये सब हैं दु:ख के कारण, संसार भ्रमण के कारण। कोई भी जीव हो, इसी तरह आनंद का साधन मुक्ति का उपाय भी सब जीवों का एक ही प्रकार का है, वह है मोह रागद्वेष से दूर होना। अपने स्वरूप का अपने ब्रह्मयत्व का यथार्थ परिज्ञान होना, यही है संसार के संकटों से छूटने का उपाय।
भैया ! अपने आपको आत्मा मानों और आत्मत्व के नाते से ही सब परख बनाओ। मैं अमुक जाति का हूँ, अमुक कुल का हूँ, अमुक मजहब का हूँ, अमुक परिवार वाला हूँ, अमुक पोजीशन का हूँ, ऐसी इस मायाजालरूप लगाव की बातों में पड़कर अपने हित की बात मत खोजो। सब धोखा है और केवल अपने आपको आत्मा मानो। मैं आत्मा हूँ, मुझे आनंद चाहिए, मेरा स्वरूप शुद्ध ज्ञानज्योति है में स्वभाव से ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ, मुझे ऐसा ही ज्ञानप्रकाशमात्र रहना चाहिए, ऐसी रुचि जगाएँ, ऐसा उद्यम करें तो धर्मपालन होगा। धर्म नाना नहीं होते हैं। धर्म एकस्वरूप होता है और वह अपने अंत:परिणामों से संबंध रखता है।
आत्मधर्म की संभाल―हे आत्महितैषी आत्मन् ! अपने-अपने धर्म को संभाल लीजिए अर्थात् अपने भाव में मोह रागद्वेष को मिटा लीजिए। समग्र वस्तुवों के केवल जानन देखनहार रहो, यही धर्मपालन है, ऐसा जिसने किया और इस पुरुषार्थ के प्रताप से जो निर्दोष और परिपूर्ण विकास वाले हों वे ही तो हमारे प्रभु हैं और ऐसा बनने का जो यत्न करते हैं वे ही हमारे गुरु हैं, ऐसी बातें सिखाने की जहाँ लिखी हुई हैं वही हमारे शास्त्र हैं, उपदेश हैं। मैं आत्मा हूँ, मेरे साथ आत्मा का ही नाता है, देह का नहीं और इस देह के कारण जो जो कुछ व्यवहार में विडंबनाएँ बनती हैं उनसे भी कुछ नाता नहीं है। केवल आत्मा के नाते से मैं अपने हित का निर्णय करूँ, इसमें ही इस दुर्लभ नरजीवन की सफलता है।