वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1497
From जैनकोष
तयोर्भेदापरिज्ञानान्नात्मलाभ: प्रजायते।
तदभावात्स्वविज्ञानसूति: स्वप्नेऽपि दुर्घटा।।1497।।
शरीर और आत्मा का जब तक भेदविज्ञान नहीं होता तब तक आत्मा की प्राप्ति नहीं होती। आत्मा ज्ञान में आने का ही नाम आत्मा की प्राप्ति है। आत्मा कहीं मूर्तिक तो है नहीं, जो ढेला पत्थर की तरह कहीं पा लिया जाय। आत्मा तो लक्ष्य में आया, उपयोग में आया, परिचय में आया जैसा कि यह सच्चिदानंदस्वरूप सहजस्वभाव से है उसी स्वरूप आत्मा की प्राप्ति है। तो ऐसी आत्मप्राप्ति देह और आत्मा का भेदविज्ञान जब तक नहीं हो सकता है तब तक नहीं हो सकता है। इस जीव के देह में अनादि परंपरा से आत्मबुद्धि लगी आयी है। जब देह से आत्मबुद्धि छूटे तब ही यह संभव है कि अपने आत्मा की प्राप्ति होगी और आत्मबुद्धि कब छूटे, जब यह सुविदित हो जाय कि देह जुदा है और आत्मा जुदा है। जब कभी ऐसी बुद्धि बने तो समझिये कि हम अपनी रक्षा कर रहे हैं। और जब अपने आपसे चिगकर किसी पर में उपयोग लगाया तो समझना चाहिए कि हम आत्मघात कर रहे हैं। परपदार्थों में उपयोग लगा रहे यह तो है आत्मघात और अपने आपके स्वरूप में उपयोग लगे यही है आत्मरक्षा। अब विचार करें कि आत्मघात में हमारा कितना समय व्यतीत होता है और आत्मरक्षा में कितना समय व्यतीत होता है? जहाँ परपदार्थों में उपयोग बसा वह तो आत्मघात है और जहाँ परपदार्थों में उपयोग न जाय वह आत्मरक्षा है। जहाँ आत्मघात है वहाँ विह्वलता हे और जहाँ आत्मघात नहीं है वहाँ विह्वलता नहीं है। जब कभी दु:खी हों, समझना चाहिए कि हम अपने आत्मदेव पर प्रहार कर रहे हैं तब दु:खी हो रहे हैं। कल्पनाएँ करता हैं जीव और जिस चाहे स्थिति में अपने को दु:खी अनुभव करने लगता है। विषयभोगों में स्थिति हो तो उसमें भी यह जीव शांति की बात नहीं ढूँढ़ निकाल पाता? किसी के पास बड़ा मौज हो, आय का जरिया भी अच्छा बना हो, बड़ा धन है, लेकिन वहाँ भी वह ऐसी बात ढूँढ़ निकालता है कि जिससे उसमें दु:ख की वेदना हो जाती है। भय लगा ले, शंका कर ले, पर करोड़पतियों पर दृष्टि देकर वह अपने को दीन अनुभव करेगा। कोई न कोई ऐसी बात वह ढूँढ़ निकालता है कि जिससे दु:खी होता रहता है। जिसके गुस्सा करने की आदत पड़ी है तो कुछ भी न हो तो अपने बच्चों पर घर पर, किसी न किसी पर अपनी गुस्सा निकाल लेता है। तो इस जीव की आदत दु:ख की वेदना की पड़ी हुई है और इसलिए यह सदा दु:खी रहता है। जो शांति का आधार है, जहाँ शांति का परिणमन हो सकता है वह मैं स्वयं हूँ। इस अपनी बात को पकड़ता ही नहीं। हालांकि कभी धर्म के भाव से यह पूजन करता, यात्रा करता, पर यात्रा करते हुए में यह भान रहे कि जिन्होंने ज्ञानदृष्टि करके संसार से मुक्ति पायी उनके हम उन चिन्हों को देखने जा रहे हैं ताकि उनकी सुध आये और हम उससे अपने लिए सबक सीखें, हम ज्ञानदृष्टि बनायें, अपने आपको ज्ञानमात्र अनुभव करें, आत्मतत्त्व की प्राप्ति करें और सुखी हों।
ज्ञानदृष्टि का ध्येय इस जीव को धर्मपालन में अवश्य होना चाहिए। तो जब शरीर और आत्मा में यह जीव भेदविज्ञान कर लेता है तो शरीर को निरखता है कि शरीर मैं नही हूँ, यह मैं तो केवल एक ज्ञानप्रकाश हूँ। यद्यपि जब कभी चिंताएँ या अन्यमनस्क हो जाते हैं तो आत्मा की सुध लेना कठिन है, लेकिन जिनका पक्का निर्णय है कि आत्मा की सुध लेने से ही कल्याण है वे बना बनाकर बड़ी कठिनता से अपने उपयोग को उस ओर ले जाते हैं जहाँ यह अनुभव बने कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, मैं केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञान को ही करता हूँ, ज्ञान को ही भोगता हूँ। ज्ञान के सिवाय न किसी का कर्ता हूँ और न भोक्ता हूँ। भीतर में दृष्टि देकर देखें शरीर का भी मान छोड़कर, अपने आपके अंदर देखें, शरीर का भी भान छूट जाय, यह बात हो सकती है और ऐसा भान करने के लिए जो आसन बताये गए हैं। उन आसनों में सब अंग भिन्न-भिन्न पड़े हुए रहते हैं। अर्थात् एक अंग से एक अंग का स्पर्श कर लें। जैसे एक हाथ से दूसरा हाथ छूकर बैठे या जंघावों पर अपने हाथ का आधार बनाकर बैठे तो वह भी एक देह के ख्याल बनाने का एक कारण बन जाता है। तो ध्यान के आसन ऐसी पद्धति के होते हैं कि जहाँ एक अंग को दूसरा अंग छुवे जैसी बात चित्त में नहीं रहती और उस स्थिति में इस देह का भी भान नहीं रहता। भीतर ही केवल एक अपने आपको ज्ञानस्वरूप से अनुभव करें तो वहाँ देह की कुछ सुध नहीं है। एक आत्मज्योति का ही विकास है, उसका ही उपयोग है ऐसे आत्मा की प्राप्ति होना यह भेदविज्ञान पर ही निर्भर है। यदि भेदविज्ञान नहीं है तो आत्मा का लाभ भी नहीं है। जैसेचावल सोध रहे हों तो चावल अलग है और कूड़ा करकट अलग है। चावल का ज्ञान है तब भेदविज्ञान है। भेद का विज्ञान है तब चावल का ज्ञान है। जहाँ यह मालूम है कि यह कूड़ा है, यह मिट्टी है, वहाँ चावल का ग्रहण है, जहाँ यह विदित हुआ कि यह चावल है तो उसके सिवाय शेष कूड़ा है। तो भेदविज्ञान से लक्ष्यभूत का परिचय होता है और लक्ष्यभूत का परिचय होने से भेदविज्ञान होता है। ये दोनों परस्पर साथी हैं। जब आत्मा का लक्ष्य न हो यों भेदविज्ञान की उत्पत्ति भी न हो सकेगी। अनेक-अनेक प्रयत्न करके कुछ समय तो यह अनुभव आना ही चाहिए कि सब समागम मेरे लिए अहितरूप हैं, मेरा हित मेरे आत्मा की साधना में ही है। जिन जिनमें राग पड़ रहा है, जिन जिनमें हम बसा करते हैं वे सब हमसे भिन्न हैं।