वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1496
From जैनकोष
आत्मतत्त्वानभिज्ञस्य न स्यादात्मन्यवस्थिति:।
मुह्यत्यंत: पृथक् कर्तुं स्वरूपं देहदेहिनो:।।1496।।
जिन्होंने आत्मतत्त्व को नहीं जाना ऐसे पुरुषों के अपने आत्मा में स्थिति न बनेगी। जब अपने आत्मा में स्थिति न बनेगी, उस सत्त्व स्वास्थ्य का परिचय न होगा तो वह आनंदानुभूति, वह आत्मानुभव न प्राप्त हो सकेगा जिसके बल पर परमात्मा के स्वरूप को जान सकते हैं। जो आत्मतत्त्व को नहीं जानता वह कैसे बाह्य पदार्थों से हटकर आत्मा में अवस्थित रह सकता है? इस देह में जितने विविध प्रकार पाये जाते हैं उनमें यह अज्ञानी पुरुष फँस जाता है। प्रथम को यह जीव अपने शरीर को ही मानता कि यही मैं सब कुछ हूँ और इसी मान्यता के कारण लोक में यह अपनी पोजीशन चाहता है क्योंकि इसने इस देह को ही आत्मा माना। तो जितने देह बीतते हैं उनको मानता है ये परजीव हैं। जब इस देह में यह मैं जीव हूँ तो बाह्य में जितने हैं वे सब परजीव हैं। जीव का तो असली स्वरूप है वह अपने को न जानने से न अपने में भान कर सके और न पर में। इन इंद्रिय रूप ही यह अपने को जान लेता है। इस देह को ही ‘यह मैं हूँ’ ऐसा समझ लेने से ये सारे ऐब आ जाते हैं। और जो जानते हैं कि यह मैं आत्मा तो केवल एक चैतन्यमात्र हूँ, करता भी कुछ नहीं, किसी बाहरी चीज को भोगता भी मैं नहीं। मेरा परिणमन होता है, इतना मात्र तो मेरा कर्तापन है और जो मेरा परिणमन होता है वही मात्र मेरा अनुभवन है। इतना ही मेरा भोक्तापन है। तत्त्वत: मैं अपने आपके स्वरूप में अपने गुणोंरूप परिणमूँ इसके सिवाय मैं अन्य कुछ करने वाला नहीं हूँ, कर नहीं सकता। बाकी जो दुनिया में दिखता है वह सब एक निमित्तनैमित्तिक भाव की परंपरा में सब बना हुआ दिखता है। वहाँ पर भी स्वरूप दृष्टि करें तो प्रत्येक जीव का परिणमन उनका उनमें ही होता है। इससे बढ़कर और क्या दृष्टांत रखा जाय? लोग बोल रहे हैं। कितने ही ढंगों से लगातार शब्द बोले जा रहे हैं। लोग तो यह ख्याल करते हैं कि इन्होंने बोला, पर यह बोल भी आत्मा की करतूत नहीं है। अब इसका निकट संबंध देखने जायें तो विदित हो जायगा। वचन रूप कौन परिणमा? जीव नहीं परिणमा। कोई सूक्ष्म एक ऐसा झार के योग्य पदार्थ है जिसमें शब्दरूप परिणमा। जब हम बोलते हैं तो शब्द का घात होता है। घात वह कर सकता है जो स्थूल हो। जोर से बोले तो कान में ठोकर लगेगी। हाथ बाँधकर बोले तो हाथ में महसूस होगा। यह सब कोई घात कर सकने वाला स्थूल पदार्थ है। यद्यपि आँखों से नहीं दिखता, पर आवरण न होता तो यह घात न होता। ये वचन तो रिकार्ड में भी रोक दिये जाते हैं। अब वे वचन रिकार्ड में किस रूप आ गये? वहाँ यद्यपि वचन नहीं है लेकिन यंत्र में वचनरूप परिणमन बनता है। फिर भी वे वचन पकड़े तो गए हैं। ये वचन यंत्रों में रोक भी तो दिये जाते हैं। तो ये वचन आत्मा के काय के कार्य नहीं हैं किंतु ये मूर्त पदार्थ के कार्य हैं।
जैनसिद्धांत में भाषावर्गणा जाति के पुद्गलों का परिणमन बताया गया है। अब उसके निकट वाली बात देखो। भाषावर्गणा का यों वचनरूप परिणमन कैसे बना? वह बना जिह्वा तालू मूर्धा कंठ आदिक के निमित्त से। इन साधनों के निमित्त से यह विषय बोलने की क्रिया बनी। वह किस निमित्त पर बनी? क्यों बनी? ये तालू तो चलते रहते हैं, इसमें क्रिया क्यों हुई? इसके मायने हैं कि ये जिह्वा तालू आदि अंग हैं। इनमें वायु की प्रेरणा हुई। वायु की प्रेरणा से ये चल उठे। इन अंगों में वायु की प्रेरणा क्यों हो गई? उसका उत्तर है― इन समस्त अंगों में आत्मा बसा हुआ है। यद्यपि आत्मा अमूर्त है, फिर भी निमित्तनैमित्तिक बंधन में यह पड़ा हुआ है। और उस आत्मा में जब योग होता है, प्रदेश परिस्पंद होता है तो उस योग की प्रेरणा पाकर उसका निमित्त पाकर शरीर में उस प्रकार की वायु चल उठती है। जिस किसी पुरुष को लकवा मार जाता है उसके अंग क्यों नहीं चलते? तो निमित्त भी चाहिए और उपादान की योग्यता भी चाहिए। अब कोई एक यह प्रश्न कर सकता है कि अंग इसी तरह क्यों चलते हैं? अरे इस प्रकार के योग होते हैं अत: चलते हैं। उस ही प्रकार के योग क्यों होते हैं? उसका कारण है इच्छा। जिस प्रकार की आत्मा में इच्छापरिणति होती है उसके अनुकूल आत्मा में योग परिस्पंद होते हैं। अब देखिये― योग से शुद्ध होता है आत्मपरिणमन। इसके आगे जो कुछ कहा गया वह सब पौद्गलिक परिणमन है। अब इच्छा हुई जिस प्रकार की उस प्रकार का योग हुआ। उसका निमित्त पाकर शरीर में वायु का संचार हुआ। वायु से शरीर के यंत्र चलते हैं। उसके चलने से भाषावर्गणा से शब्द का परिणमन हुआ। यहाँ हम बोलने तक के भी कर्ता नहीं हैं। केवल एक योग बना, इच्छा बनी, उपयोग बना, इतने मात्र के कर्ता हैं, इसके आगे हम करने वाले नहीं हैं, यह बात चित्त में बैठ जाय तो यह परीक्षा करके निर्णय में आने वाली बात है। ऐसा यह तत्त्व विभक्त अंतस्तत्त्व अपनी दृष्टि में आये तो यह आत्मा अपने आपमें स्थित हो सकता है। समस्त परतत्त्वों से उपेक्षा करके केवल एक अपने इस शुद्ध चैतन्य भाव में रह सके और जिन्होंने आत्मा की ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लिया उन पुरुषों ने ही परमात्मतत्त्व को जाना, उन्होंने ही परमात्मतत्त्व का मर्म समझ पाया, और ऐसे ही पुरुष उस परमात्मतत्त्व की आराधना करके परमात्मा बन जाते हैं। छहढाला में पंडित दौलतरामजी कैसा बोलते हैं कि ‘बहिरातम को हेय जानकर अंतरात्मा हुजे। परमातम को ध्येय निरंतर जो नित आनंद लीजे।।’ यों परमात्मा का स्वरूप जानने के लिए अपने आपको अपने आनंदस्वरूप में प्रतिष्ठित करने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने आत्मा के स्वरूप को जानें और यह जानना सुगम है चूँकि हम स्वयं आत्मा हैं, स्वयं ज्ञानमय हैं। जैसे हम इस आत्मा का प्रयोग बाह्यपदार्थों पर करते हैं और जब हम बाह्य पदार्थों पर उपयोग न करें, अपने आप पर जानते रहें तो हम अपने आपको जान सकते हैं। अपने आपका निर्णय करने पर हमारा सारा भविष्य निर्भर है। हम क्या बनें, क्या न बनें, सुखी रहें अथवा दु:खी रहें, यह सब सृष्टि हमारे आपके आत्मतत्त्व के निर्णय पर निर्भर है।