वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1498
From जैनकोष
अत: प्रागेव निश्चेय: सम्यगात्मा मुमुक्षुभि:।
अशेषपरपर्यायकल्पनाजालवर्जित:।।1498।।
इस कारण जो मुमुक्षु लोग हैं, जिन्हें संसार के संकटों से छुटकारा प्रिय है उनको यह सर्वप्रथम निश्चय करना चाहिए कि सामान्य परद्रव्यों की कल्पना से रहित यह मैं आत्मा हूँ, अपने स्वरूप को उपादेय करके परिणमता रहता हूँ। मैं अपने ही प्रदेशों में व्यापकर अपने ही गुणोंरूप परिणमा करता हूँ। शेष अन्य द्रव्य वे अपने ही प्रदेश और गुणों के आधार में परिणमा करते हैं। में आत्मा ज्ञान ज्योतिमात्र हूँ। मेरा कोई नाम ही नहीं हे जो हमें एक सम्मान और अपमान करने का कारण बने। वास्तविकता यह है कि जो अपने आपमें नाम की कल्पना करता है वह सर्वप्रथम तो इस पुद्गल पिंड को निरखता है। इस पुद्गल पिंड को निरखे बिना नाम की कल्पना नहीं बनती। सहज चैतन्य स्वभावमात्र जीव का कोई नाम नहीं लिया करता, क्योंकि वह खुद नामरहित है और जब परिचय में आता तब नाम लेने की प्रवृत्ति ही नहीं रहती। तो नाम की कल्पना एक मूर्तिक पर्याय में है, और जहाँ इस देह में आत्मबुद्धि लगाया तो परदेह ये अन्य-अन्य जीव हैं ऐसी बुद्धि लग जाती है और फिर पोजीशन की पड़ जाती है। तभी ये क्रोधादिक कषायें उत्पन्न होने लगती हैं, उसका जीवन दूभर हो जाता है। अपने आपमें ‘मैं निर्नाम हूँ’ ऐसा अनुभव जगना चाहिए। में वह हूँ जो सबमें है। रागादिक भाव एक स्वरूप तो नहीं हैं। अत: रागादिक मैं नहीं हूँ। जो मैं हूँ वही सब जीव कुछ-कुछ एक स्वरूप हैं। फिर नाम क्या? जब सभी एक समान हो गए तो अब कौन रहा अलग? किसकी जीत रही? वहाँ सब नामरहित हैं, जिनका नाम भी नहीं। केवल ज्ञान और आनंदभाव रूप है वह मैं आत्मा हूँ। ज्ञानभाव और आनंदभाव और उन दोनों में भी मात्र ज्ञानभाव मैं आत्मा हूँ। उस ज्ञानभाव का अनादि से संबंध है। अनादि का अविनाभावी है, क्योंकि जो कुछ भी हममें अनुभव होता है वह एक ज्ञान के द्वारा ही अनुभव होता है। तो इस दृष्टि में यदि यह कह दिया जाय कि सुख भी ज्ञान है, दु:ख भी ज्ञान है तो कुछ अत्युक्ति नहीं है, क्योंकि जिस समय सुख हो रहा है उस समय इस जीव के ऐसी कल्पनारूप परिणति चलती रहती है ज्ञान में कि यह कल्पना में सुखी हुआ करता है।
जब कभी दु:ख हो तो वहाँ भी यह देखना चाहिए कि कोई कल्पना ही की गई है जो दु:ख रूप से अनुभवी जा रही है। अन्य बात से सुख और दु:ख नहीं है। वह सुख दु:ख परिणमन भी एक ज्ञान का विशिष्ट परिणमन है। मैं ज्ञानमात्र हूँ। संसार अवस्था में भी उस ज्ञान को कर रहा हूँ, मुक्त अवस्था में भी उस ज्ञान को करूँगा, दु:ख अवस्था में भी मैं उस ज्ञान को कर रहा हूँ। शांति समता की स्थिति में भी उस ज्ञान को ही किया करता हूँ।ज्ञान उसका अविनाभावी गुण है, वह गुण छुट नहीं सकता। मेरा जो कुछ जाननरूप परिणमन है उसमें ही अनेक कलायें बसी हुई हैं, कल्पनाएँ चल रही हैं किंतु हम कभी सुख और कभी दु:ख का अनुभवन करते हैं। ज्ञान के सिवाय और किसी पर मेरा अधिकार नहीं, करतूत नहीं, कोई वश नहीं चलता। मैं एक ज्ञानमात्र हूँ― इस प्रकार का परिचय हो तो आत्मा की प्राप्ति है। इस स्थिति में किसी भी पर से या पर की पर्याय से इसका संबंध नहीं है। सबसे निराला एक ज्ञानमात्र मैं आत्मतत्त्व हूँ, यह बराबर लक्ष्य में रहना चाहिए, जिससे अशांति दूर हो और आनंद प्रकट हो और एक ऐसा रास्ता मिले जो संसार के संकटों से हमें छुटा दे। हम आत्मा का ग्रहण करें, ध्यान करें, चिंतन करें, उपयोग न लगे तो भी मैं हूँ, ऐसा मन में बोल बोलकर उपयोग लगाने का यत्न करें। जैसे कभी कोई निबंध लिखने का मन में हो और दिमाग में कुछ भी बात न उपजे, में क्या लिखूँ, तो उस समय अपनी कलम दवात लेकर कागज पर कुछ लिखने बैठे तो कुछ समय बाद दिमाग में उपज जाता है और वह लिखने लगता है। तो ऐसे ही हमें आत्मानुभव दुस्तर लग रहा है, लेकिन आत्मा की उपासना है, आराधना है तो हम प्रयत्न करके उस आत्मा की चर्चा करने लगेंगे, उस पर कुछ बोलने लगेंगे। तो हमें उस प्रसंग में आत्मा की सुध आ सकती है। हमारा कर्तव्य है कि हम यदि संसार के दु:खों से छूटना चाहते हैं तो समस्त परतत्त्वों से निराला केवल ज्ञानमात्र अपने आपको निरखें।