वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1506
From जैनकोष
अक्षद्वारैरविश्रांतं स्वतत्त्वविमुखैर्भृशम्।
व्यापृतो बहिरात्मायं वपुरात्मेति मन्यते।।1506।।
यह बहिरात्मा इन इंद्रियों के द्वार से व्यापार करता है, चेष्टा करता है, देखने का सुनने का, सूँघनेका, स्वादने का प्रयत्न करता है, शरीर को ही आत्मा मानता है। पर होता क्या है? ये सब इंद्रियाँ आत्मस्वरूप से विमुख हैं। आँखों से हम आँखों की बात नहीं जान पाते और बाहर की बातें जान लेते हैं। आँख में कीचड़ लगा हो या काजल लगा हो या रोम आया हो तो आँख उसी आँख को देख नहीं पाती। तो यह आँख आँख की ही चीज को नहीं देखती है, बाहर की चीज को ही देखती है। इसी प्रकार नासिका भी बाहर की चीजों का ज्ञान करती है। यह जिह्वा भी जिह्वा का स्वाद नहीं लेता, बाहरी पदार्थों का स्वाद लेता है। कान भी बाहर की बात सुनते हैं भीतर की बात नहीं जानते। जैसे किसी के बुखार चढ़ा हे तो उसके कितना बुखार है यह सारा शरीर नहीं जान पाता। एक हाथ से दूसरे हाथ को पकड़कर मालूम कर पाता है। ये इंद्रियाँ तो आत्मा के स्वरूप से विमुख हैं, वे बाह्य पदार्थों को जानती हैं, आत्मतत्त्व को नहीं जानती। तो इन इंद्रियों के द्वारा व्यापार करने वाला बहिरात्मा है, और यह बाहरी-बाहरी प्रयत्न करता है। अपने आपको यह नहीं जान पाता कि मैं क्या हूँ। अपने आपको तो तब जानें जब इन इंद्रियों का संयोग न चाहें। अपनी ही ज्ञानकला से अपने ही बसे हुए ज्ञानस्वरूप को जानें तो जान सकते हैं, पर इंद्रियों की मदद करके हम आत्मा को जानना चाहें तो कभी नहीं जान सकते हैं। कितना ही कान लगायें कि आत्मा की बात सुन लें तो नहीं सुने जाते हैं। कितनी ही तीक्ष्ण दृष्टि लगाकर देखें कि इस आत्मा का दु:ख कैसा है तो इन आँखों द्वारा नहीं देखा जा सकता है। यों ही इन समस्त इंद्रियों की बात है। इन समस्त इंद्रियों से मुख मोड़कर स्थिर चित्त होकर अपने आपमें निहारें, बाहर में निहारने का उद्यम न करें तो यह आत्मतत्त्व परमात्मस्वरूप अपने आपके अनुभवन में आ सकता है। तो ज्ञानी पुरुष अपने आपकी ओर मुख मोड़ता है और अपने आप आत्मस्वरूप का चिंतन करके परमआनंद रस में तृप्त रहा करता है। यही कारण है कि ज्ञानी पुरुष पर कोई आपत्ति आये तो उसके मन में रंच भी खेद नहीं होता। यों लोक में तीन प्रकार के आत्मा हैं, उनमें से हमें यह शिक्षा लेना है कि बहिरात्मापन तो छोडने योग्य है और अंतरात्मापन ग्रहण करने योग्य है और परमात्मपद सर्वथा उपादेय है। सर्वोच्च उन्नतिपद परमात्मपद है। उस पद के प्राप्त करने के बाद अनंतकाल तक वैसा ही आनंद प्राप्त होता रहेगा, ऐसा निर्णय करना चाहिए और अपने आपको अंतरात्मा बनाने का यत्न करना चाहिए।