वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1511
From जैनकोष
तत: सोऽत्यंतभिंनेषु पशुपुत्रांगनादिषु।
आत्मत्वं मनुते शश्वदविद्याज्वरजिह्मित:।।1511।।
मूल में इस जीव ने ऐसा माना था कि यह मैं हूँ। जो देह हे, पर्याय है उसको नजर रखकर माना था कि यह मैं आत्मा हूँ। जब अपने देह को अपना आत्मा माना तो पर के देह को परआत्मा मानता है। इसके बाद पुत्र, मित्र, स्त्री आदिक जो अत्यंत भिन्न हैं उनमें आत्मत्व मानता है कि ये मेरे हैं। अभी इस देह तक ही इसकी मान्यता थी जो छुड़ाये छूट नहीं सकती। इस पर्याय तक सदा साथ रहती है। अब इस देह से भी अत्यंत भिन्न, जिससे हमारा कोई संबंध नहीं है, ऐसे पशु, पुत्र, स्त्री आदिक में भी मानता है कि यह मेरा है। सो यह अज्ञान ज्वर का माहात्म्य है। पदार्थ संसार में जितने हैं वे सब इकहरे हैं, केवल अपना-अपना स्वरूप अपने में रखते हैं, अपने ही उत्पादव्ययध्रौव्य से अपना परिणमन कर रहे हैं। किसी भी पदार्थ से कोई संबंध नहीं है। यद्यपि निमित्तनैमित्तिक भाव इतना घनिष्ठ है कि जिससे मालूम होता कि इस पदार्थ ने ही अमुक को यों कर दिया। यह गैस जल रही है, इसमें हवा भर दिया, लो प्रकाश बढ़ गया। लगता तो यह है कि देखो हवा ने रोशनी बढ़ा दिया, पर हवा हवा में है, रोशनी रोशनी में है। निमित्त तो है पर हवा के उपादान से रोशनी नहीं बढ़ती। निमित्तनैमित्तिक भाव तो है पर एक दूसरे का कर्ता कर्म नहीं है। यों किसी भी पदार्थ का किसी भी अन्य पदार्थ के साथ संबंध नहीं है। लेकिन यह अज्ञानी जीव अविद्या ज्वर से पीड़ित होकर पशु मित्रादिक में अपना आत्मत्व मानता है।