वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 153
From जैनकोष
अन्य: कश्चिद् भवेत्पुत्र: पिताऽन्य: कोऽपि जायते।
अन्येन केनचित्सार्घं कलत्रेणानुयुज्यते।।153।।
संबंधों की अन्यता―इस जगत् में कोई अन्य जीव ही तो पुत्र होता है और अन्य ही कोई पिता होता है, किसी अन्य जीव के ही साथ स्त्री संबंध होता है। इस प्रकार देखो सारे संबंध भिन्न-भिन्न जीवों से होते हैं। एक ही जीव खुद का पुत्र बन जाय, खुद का पिता बन जाय, खुद की स्त्री बन जाय, ऐसा तो नहीं है। जितने भी संबंध हैं वे भिन्न जीवों से होते हैं, अभिन्न से संबंध हो ही नहीं सकता। संबंध मानने का अर्थ ही यह है कि ये भिन्न-भिन्न हैं। संबंध मानकर शिक्षा तो यह लेनी चाहिए कि ये भिन्न-भिन्न हैं, पर स्नेह से यह ग्रहण कर लिया गया कि ये मेरे ही है। ज्ञानी जीव का अद्भुत अंत: प्रभाव होता है। नरकगति में पहुँचा हुआ जीव इतने विकट उपसर्गों को सहता है मारपीट सहता है और दूसरों को भी मारता पीटता है, इतने पर भी वह अंतरंग में सम्यग्दृष्टि नारकी है तो श्रद्धा में इन बाह्य क्रियाओं से विपरीत है। इतने दु:ख भोगकर भी श्रद्धा में उनके प्रति लगाव नहीं समाया है।