वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1530
From जैनकोष
बाह्यात्मानमपि त्यक्त्वा प्रसंनेनांतरात्मना।
विधूतकल्पनाजालं परमात्मानमामनेत्।।1530।।
फिर बाह्य आत्मा को भी छोड़कर प्रश्नरूप अंतरात्मा के द्वारा मिटे हैं कल्पनाजाल जिसके, ऐसे परमात्मा को अपने आपमें देखें। आत्मा में अंतरात्मा और बाह्य आत्मा― इन दो स्वरूपों का जिक्र किया है। बाह्य आत्मा तो है कल्पनाजाल। जो आत्मा का सहजस्वरूप है, शरीरादिक का संबंध है, रागादिक भाव का संपर्क है वह तो है बाह्यआत्मा और अंत: जो चैतन्यस्वरूप है वह है अंत: आत्मा। तो बाह्य आत्मा को तो छोड़ें, बहिरात्मा का त्याग करें। बाह्य में यह मैं आत्मा हूँ― इस प्रकार की कल्पनाओं का त्याग करें और अंदर में अपने आपके चैतन्यमात्र आत्मस्वरूप को देखें। यह एक शिक्षा दी है। जैसे किसी घोरखधंधे में कोई छल्ला वगैरह छुटाना है तो छुटाने का सुगम काम है, वह फँस गया है उसे छुटाना है ऐसे ही अपने आपको इस बाह्य स्वरूप से छूटने का है तो सुगम काम लेकिन बंधन में, विडंबनाओं में यह फँस गया है। जो आत्मा का बाह्यस्वरूप है उस बाह्यस्वरूप में यह फँस गया है, इस कारण अपने अंत: आत्मा को प्रसन्न नहीं कर सका। और जब अपने अंत: आत्मा को प्रसन्न न कर सका तो परमात्मा का अभ्यास क्या कर सकता? यह उपयोग जैसे यह बाहर-बाहर डोल रहा है, बाहर का डोलना छूटे और अपने आपमें उपयोग समाया देख करके ऐसी स्थिति बने तो परमात्मा का दर्शन नियम से होगा। परमात्मदर्शन में बाधक है अहंकारभाव। शरीर आदिक को मानना कि यह मैं हूँ ऐसी मान्यता से ही इस परमात्मा का दर्शन रुका हुआ है। लोग अहंकार को घमंड भी कहते और नाक भी कहते। यह अपनी बड़ी नाक बना रहा है। तो अहंकार की ओट में परमात्मा का दर्शन नहीं होता। एक गाँव में एक पुरुष नकटा था तो लोग उसे बहुत चिढ़ायें, नकटा-नकटा कहा करें। वह बहुत घबड़ाया, बड़ा दु:खी हुआ। आखिर उसे एक उपाय मिला। जब किसी ने कहा ऐ नकटा ! तो वह बोला कि तुम्हें क्या पता कि नकटा होने में क्या लाभ है? जब तक मेरे नाक थी तब तक परमात्मा का भगवान का हमें दर्शन न हो पाताथा। जब से मेरी नाक कट गयी तब से मुझे साक्षात् भगवान के दर्शन हो रहे हैं। तो उसे बड़ी अच्छी बात लगी। कहा भाई हमारी भी नाक काट दो ताकि हम भी भगवान के साक्षात् दर्शन किया करें। तो उसकी नाक काट ली। अब वह ऊपर देखता है कि हमें कहीं भगवान नहीं दिखते। तो वह नकटा बोला कि अरे भाई, तुम्हारी तो नाक कट गई। अब तो तुम दुनिया को यही बतलावो कि हमें साक्षात् भगवान के दर्शन हो रहे हैं। जब तक नाक थी तब तक दर्शन न था। तुम भी दूसरे की नाक काटो। उसने भी नाक काटना शुरू किया। सबको सीखा दिया कि तुम दूसरे को भी बतावो कि हमें साक्षात् भगवान के दर्शन होते हैं। यों सारे गाँव की नाक कट गई। राजसभा में सभी लोग बैठे। राजा सोचता है कि सभी लोग तो कितना सुंदर जँच रहे हैं, मेरे यह क्या ऊँची सी लग रही है? सबने कहा महाराज ! जब से हमारी नाक कटी तब से हमें भगवान के साक्षात् दर्शन हो रहे हैं। यदि आप भी भगवान के साक्षात् दर्शन करना चाहें तो आप भी अपनी नाक कटा दें। तो राजा बोला― अच्छा हमारी भी नाक काट दो। तो और लोगों ने कुछ नहीं कहा, पर पुराना नकटा एकांत में बुलाकर कहता हे महाराज आप नाक न कटावों, लोग मुझे नकटा कह कहकर चिढ़ाते थे सो हमने यह जाल रचा जिससे सभी लोग नकटा हुए। कहीं नाक कटाने से भगवान के दर्शन नहीं होते। तो परपदार्थों में अहं बुद्धि न जगे, आत्मा का जो विशुद्ध चैतन्यस्वरूप है उसमें ही ‘यह मैं आत्मा हूँ’ ऐसी आत्मबुद्धि जगे तो नियम से उस परमात्मतत्त्व के दर्शन होंगे। और अपने आपमें विराजमान सनातन विशुद्ध परमात्मतत्त्व के दर्शन हुए तो समझ लो कि हमारी संसार की सारी फाँसी कट गयी। सब झंझटों से हम छूट गए। अपने आपमें बसे हुए परमात्मतत्त्व के दर्शन से ही हमें सहारा है, वही वास्तव में शरण है, उसमें ही हमारा कल्याण है, अन्य-अन्य पदार्थों की दृष्टि में हमारा कल्याण नहीं है।