वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1538
From जैनकोष
सुसंवृतेंद्रियग्रामे प्रसन्ने चांतरात्मनि।
क्षणं स्फुरति यत्तत्त्वं तद्रूपं परमेष्ठिन:।।1538।।
भली प्रकार इंद्रिय समूहों को जिसने वश में कर रखा है ऐसा जो कोई प्रसन्न अंतरात्मा पुरुष है उसमें ही जो एक क्षण स्थिर होकर जो तत्त्व स्फुरायमान होता है वह तो परमेष्ठी का स्वरूप है। क्या भला है, कौन तत्त्व शरण है, कौन चीज मंगल है, हमारे दु:खों को छुटाने में कौनसा प्रकाश समर्थ है, वह कैसे अनुभवा जाता है? उसकी विधि इस श्लोक में कही है। पहिले तो इंद्रिय समूहों का सम्वरण किया जाय। ये इंद्रियाँजो कुछ चाहती हैं उनकी इस चाह को रोकिये। इंद्रियों को वश में करिये अर्थात् चाह को रोकिये। किसी भी प्रकार के विषयों की चाह है यों तो इंद्रियों को सम्हाला गया तब हुआ यह आत्मपरिणमन और पर के मल से रहित होकर निर्मल हुआ ऐसी अंतरात्मा में, ऐसी निर्मलता रहते हुए, ऐसी निर्दोषता रहने पर क्षणभर में जो कुछ एक अनुभव होता है बस वही आत्मा का सहजस्वरूप है, सत्य स्वरूप है। उस स्वरूप का अनुभव जिसे हुआ वह तो संसार से तिर गया और जिसे अपने स्वरूप का अनुभव नहीं जगा वह बाह्यपदार्थों में ही रमता रहा बच्चों की तरह। जैसे बालक खेल-खेल में रमते रहते हैं इसी प्रकार ये जीव रूप, रस, गंध, स्पर्श में रमते रहते हैं। तत्त्व कहीं प्राप्त नहीं होता। तृप्ति का आधारभूत अथवा आनंद का परमधाम तो यह सहज चैतन्यपदार्थ है केवल ज्ञानप्रकाश। पक्ष न होवे, रागद्वेष न उपजे, मात्र चैतन्यचमत्कार हो, वही वास्तविक शरण है और वही परमोत्कृष्ट पद है।