वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1537
From जैनकोष
स्याद्यद्यत्प्रीतयेऽज्ञस्य तत्तदेवापदास्पदम्।
बिभेत्ययं पुनर्यस्मिंस्तदेवानंदमंदिरम्।।1537।।
देखो अज्ञानी पुरुष जिन-जिन विषयों से प्रीति करते हैं, जिन-जिन विषयों में प्रेम करते हैं वे सब बातें इसके अनर्थ के कारण हैं, वे सब आपत्ति के साधन हैं, लेकिन ये अज्ञानी जीव जिस बात में भय करते हैं, ज्ञान में, तपश्चरण में, वैराग्य में भय करते हैं वही वास्तव में आनंद का निवास है। जो अज्ञानी पुरुष हैं वे अच्छे को बुरे रूप में देखते हैं और बुरे को अच्छे के रूप में देखते हैं। अब स्वयं ही अनुभव कर लें कि इन समागमों में, विषयों में चेतन कुटुंब परिवार आदिक में अचेतन वैभव आदिक में प्रीति करते थे पर कहीं तृप्ति हुई है अथवा कहीं भय मिटा है? इन बाह्यपदार्थों में प्रीति करने से न अब तक भय मिट सका और न तृप्ति हुई। खूब देख लो ज्यों के त्यों रीते हैं। क्या करना चाहिए, ये सब बातें सामने अब तक भी पड़ी हुई हैं। क्योंकि तृप्ति का साधन तो बाह्यपदार्थ है ही नहीं। बाह्यपदार्थों से संतोष हो ही नहीं सकता। संतोष का साधन तो आत्मतत्त्व है, स्वयं है। स्वयं की रुचि हो, प्रीति हो तो आत्मा को तृप्ति मिलेगी, पर अज्ञानी जीव की उस ओर कहाँ दृष्टि जाती है? वह तो भ्रम से विपरीत तत्त्व मानता है। अज्ञानी को अज्ञान के कारण सब उल्टा ही भासता है।