वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 155
From जैनकोष
मिथ्यात्वप्रतिबद्धदुर्णयपथभ्रांतेन बाह्यानलं, भावान्स्वान्प्रतिपद्य जन्मगह-ने खिन्नंत्वया प्राक् चिरम्।
संप्रत्यस्तसमस्तविभ्रमभवश्चिद्रूपमेकं परम्, स्वस्थं स्वं प्रविग्राह्य सिद्धि वनितावक्त्रं समालोकय।।155।।
मिथ्यात्वप्रतिबद्धता―हे आत्मन् ! तू इस संसार रूपी गहन वन में मिथ्यात्व के संबंध से उत्पन्न हुआ सर्वथा एकांतरूप दुर्नय के मार्ग में भ्रम रूप होकर बाह्यपदार्थों को अपना मानकर चिरकाल से खेद खिन्न होता चला आया है। अब तो समस्त भ्रमों को दूर करके अपने आप ही में रहने वाले इस चैतन्यस्वरूप का अवगाहन कर, सिद्धि के स्वरूप का स्पर्श कर। जितनी जो कुछ भटकनाएँ हैं, चिंताएँ हैं, क्लेश हैं उन सबकी जड़ है मिथ्यात्व भाव। निज को निज पर को पर जान लें, फिर दु:ख का कोई कारण ही नहीं रहता है। इस मिथ्यात्व के कारण इस जीव में एक एकांत विपरीत हठ हो जाया करती है।
भ्रमपूर्ण स्वपर का परिज्ञान―लोगों ने अपने-अपने दायरे में कौन-कौन चीज में कैसी अपनायत बनायी है कि उनकी दृष्टि में जंचता है कि इतना वैभव तो मेरा है और बाकी सब गैर का हैं। ये सब गैर है, यह भी सच्चाई के साथ नहीं जंच रहा है। जैसे भ्रम में आकर अपने अधिष्ठित वैभव को अपना मान लिया, ऐसे ही भ्रम में आकर कुछ वैभव को दूसरे का मान लिया। यह कोई भेदविज्ञान नहीं है। मान लिया कि यह दूसरे का घर है, दूसरे का शरीर है; दूसरा जीव है, ऐसा भर मान लेना यह भेदविज्ञान नहीं है क्योंकि इसने दूसरों को यथार्थरूप दूसरा नहीं माना। जैसे यह जीव अपने लगे हुए देह को ‘यह मैं हूँ’ ऐसा मानता है इसी तरह परजीवों के द्वारा अधिष्ठित देह को यह पर है, ऐसा मान बैठता है। तो जैसे अपने आपके बारे में देह में और जीव में एक आत्मीयता उपयोग में लायी है। ऐसे ही दूसरों में भी देह में और आत्मा में आत्मीयता उपयोग में लायी है। इस कारण से अपने देह को निरखकर ‘यह मैं हूँ’ ऐसा मानना जैसे भ्रम है, ऐसे ही दूसरे मनुष्य आदि को निरखकर ‘यह दूसरा जीव है ऐसा’ मानना वह भी भ्रम है। यदि यह देह से न्यारा चैतन्यस्वरूपमात्र अपने आपको समझकर फिर इस चैतन्यस्वरूप को माने कि यह मैं हूँ तो वह विवेक है, ऐसे ही दूसरों के प्रति भी इन शरीरों से यह भिन्न है, यह भी चैतन्यस्वरूपमात्र है, इस प्रकार निरखे तो वहाँ भेदविज्ञान समझिये।
जरासी बात का बड़ा बतंगड़―यह तो मिथ्यात्व का अंधेरा ही है कि अपने देह को ‘यह मैं हूँ’ यों मानना और दूसरे देहों को देखकर यह दूसरा है ऐसा मानना। चिरकाल से खेदखिन्न होता हुआ यह चला आ रहा है, इसका मूल कारण केवल पर की अपनायत ही है, बात सिर्फ जरासी है और बतंगड़ इतना बन गया है। बात कितनी सी है? यह उपयोग इसकी ओर न झुककर उस ओर झुक गया। बहुत थोड़ा सा अंतर पड़ा है। उपयोग जीव प्रदेश में ही है। कही यह उपयोग अपने आधार को छोड़कर बाहर नहीं चला गया। अपने ही घर में रहते हुए यह उपयोग इसके उपयोग की यूज की प्रयोग की पद्धति बहिर्मुखता की बनायी गई है। यह अपने आपकी ओर न झुककर पर की ओर झुक गया।
बवंडर की जड़ जरासी बात―जैसे हम यहाँ बैठे हैं, इस ओर मुँह करे हैं और पीछे की ओर मुँह कर लें तो हमें कुछ ज्यादा अंतर तो न करना पड़ेगा। थोड़ा फिर गया। उपयोग में इतना भी नहीं करना पड़ता। अपनी ओर झुके और पर की ओर झुके― इन दो विलक्षण विरुद्ध बातों के लिये इतना भी श्रम अथवा अंतर नहीं करना पडता। जैसे इस शरीर वाले हम इस समय यहाँ देख रहे हैं अब हम पीछे देखना चाहें तो उसमें हम जितनी प्रकट बदल करते हैं उतनी भी तो बदल नहीं है, इस उपयोग में इतनी सी तो एक अन्य बात बनी और कर्मों से बँध गया, शरीर से घिर गया, नाना परतंत्रताएँ हो गयी, इतना बड़ा बंधन बन गया, बतंगड बन गया अब जन्म ले रहे हैं, मरण कर रहे हैं। कभी किसी को अपना माना, फिर किसी को अपना माना, यों मानकर ही हैरानी हो जाती है। हर भव में पाये हुए समागम छोड़ने पड़ते हैं, नये समागमों में फिर मोह करना पड़ता है। इतना विकट बतंगड, इतना विकट जाल इस जीव पर लगा है। उसमें कारण केवल इतना ही है कि यह पर की ओर झुक गया है।
आत्मसावधानी का अनुरोध―भैया ! अब तो इस भ्रम का भार मिटा लो, यथार्थ बात पहिचान लो, अपने आप पर दया कर लो, अपने आपकी रक्षा कर लो। अपने आपमें वर्तमान इस उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप में अवगाहन करके तू सिद्धवनिता का मुख देख, अर्थात् मुक्ति में कैसा आनंद है? उस आनंद का अनुभव कर देख लो सभी पदार्थ अपनी सत्ता लिए हुए है। अपने-अपने में ही पूर्व पर्याय को विलीन करते हैं और नई पर्याय को प्रकट करते हैं। किसी का किसी से कुछ संबंध नहीं है। तू भ्रम से ही परपदार्थों में अहंकार और ममकार करता है। सो जब यह अपना स्वरूप तू जान लेगा सबसे न्यारे अपने आपमें संतोष करेगा तो पर का उपद्रव आपके न आयेगा, यही एक अन्यत्व भावना का फल है। हम यथार्थ विश्वास दृढ़ बनाये रहें कि हम पर से न्यारे हैं और अपने स्वरूप में तन्मय हैं, इसमें रंच भी संदेह न करें। इस दृढ़ भावना के प्रताप से हम प्रत्येक परिस्थिति में अंतरंग में संतुष्ट रह सकेंगे।
अशुचि भावना