वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1563
From जैनकोष
तन्नाहं यन्मना किंचित्प्रज्ञापयितुमिष्यते।
योऽहं न स परग्राह्यस्तन्मुधा बोधनोद्यम:।।1563।।
ज्ञानी पुरुष और भी विचार करते हैं कि जो कुछ मैं परपदार्थों को जानना चाहता हूँ, सो ऐसा वह आत्मा नहीं हूँ और जैसा मैं हूँ वैसा दूसरे पुरुष मुझे ग्रहण नहीं कर सकते। इस कारण किसी को कुछ भी समझाने का उद्यम करना व्यर्थ है। ज्ञानीपुरुष अपने आपकी साधना में अपनी धुन बनाये रहते हैं। जो पुरुष अति अज्ञान अंधकार में डूबे हैं, मोही हैं उनको समझाने की चेष्टा ज्ञानी पुरुष नहीं करते। इसका कारण यह है कि उस चेष्टा में न वहाँ भलाई है और न खुद की भलाई है। फिर प्रश्न हो सकता है―तो फिर अज्ञानियों का उद्धार कैसे हो? तो कोई योगी अज्ञानियों के उद्धार का ठेका लेकर नहीं उतरा है, वह तो अपने आपके परिणामों को निर्मल रखने की धुनि बनाये है। और इस धुनि के बीच यदि किसी अज्ञानी पुरुष में जो कि मंद कषाय वाला हो, उसमें उपदेश का कुछ असर पहुँच सकता है तो वह लाभ ले ही लेता है। ज्ञानीपुरुष अज्ञानियों को देखकर, खोज-खोजकर उन्हें समझाते फिरें इसके लिए उन्होंने अपना भेष यों बना नहीं लिया है। यदि वे ऐसा करते फिरें तो उनका यह भेष धारण करना व्यर्थ है। साधुजन तो अपने आत्मा की साधना के लिए ही दीक्षा धारण करते हैं, पर के उपकार के लिए रंच भी ध्यान नहीं रखते। पर कषायें उनके भी हैं, करुणाबुद्धि उनके भी है इस कारण पर का उपकार होता रहता है। पर कोई दीक्षा लेते समय ऐसी बुद्धि बनाये, ऐसा लक्ष्य रखे कि मुझे तो अज्ञानियों का उपकार करनाहै तो उसने दीक्षा ही नहीं ली। आत्मा की साधना करने का नाम है दीक्षा। उसी को कहते हैं साधु। तो जो ज्ञानी पुरुष हैं वे अज्ञानियों में नहीं रमते, न उनसे वचनव्यवहार करते हैं। इसके लिए हम श्लोक में बहुत महत्त्वपूर्ण कारण बता रहे हैं कि बात यह है कि जो कुछ मैं पर को जानना चाहता हूँ, पर को जानना चाहता हूँ ऐसा तो वह आत्मा मैं नहीं हूँ और जो मैं आत्मा हूँसो पर के द्वारा ग्रहण में नहीं आ सकता। इस कारण उनको बोधने का उद्यम करना व्यर्थ है, ऐसा जानकर पर के बोधन के विकल्प से दूर रहते हैं और अपना अधिक समय आत्मा के संबोधनमें व्यतीत करते हैं।