वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1564
From जैनकोष
निरुद्धज्योतिरज्ञोऽंत: स्वतोऽन्यत्रैव तुष्यति।
तुष्यत्यात्मनि विज्ञानी बहिर्विगतविभ्रम:।।1564।।
अज्ञानी तो अपने से भिन्न परवस्तुवों में ही खुश रहते हैं क्योंकि अज्ञानी का अंतरंग ज्ञानप्रकाश रुक गया है। लेकिन ज्ञानी पुरुष अपने आत्मा में ही संतुष्ट रहते हैं, क्योंकि उनका बाह्यपदार्थों के विषयक भ्रम नष्ट हो चुका है। ज्ञानी और अज्ञानी के रमने का अंतर बताया जा रहा है। अज्ञानी को चूंकि अपने को कुछ पता नहीं है, जो परमविश्राम का स्थान है, आनंद का धाम है, जहाँ उपयोग जाय और रमे तो एक विशुद्ध आनंद का ही अनुभव मिले। ऐसे निज आत्मतत्त्व का उसे परिचय नहीं है तो वह रमे कहाँ? अनादि से बाह्यवस्तुवों का परिचय बना हुआ है और इन इंद्रियों के द्वार से उन बाह्यवस्तुवों के प्रसंग में यह सुख मानता चला आया है। इस कारण यह अज्ञानी जीव बाह्यपदार्थों में ही रमता है, वहाँ ही संतुष्ट होता है। सो देख लो―आजकल के मनुष्य लोगों में यह ही प्रवृत्ति देखी जा रही है―इन वैभवों को बढ़ाना, विषयसाधन बढ़ाना, उनमें ही खुश रहना, उनमें ही संतुष्ट रहना। यह वृत्ति बना रखी है। किंतु ज्ञानीपुरुष का बाह्य में कहीं मन नहीं लगता, कहीं दिल ही नहीं थमता। कहाँ रमे? सब असार हैं, भिन्न हैं, उनसे अपना कुछ संबंध नहीं है, बल्कि उन बाह्यपदार्थों को अपना विषय बनाकर यह जीव अपना अनर्थ कर रहा है। इसको वहाँ कोई तत्त्व नहीं नजर आता। अतएव ज्ञानी जीव बाह्यपदार्थों में नहीं रमता किंतु वह अपना ही अंतरंग जो कारणपरमात्मस्वरूप है उस ही तत्त्व में रमता है यह ज्ञानी। और अज्ञानी तो बाह्यपदार्थों में ही खुश रहता है। अज्ञानी का परिणाम तो उसका संसार बढ़ाने वाला है और ज्ञानी का परिणाम उसका संसार छूटाने वाला है। यों अज्ञानी और ज्ञानी पुरुष में महान अंतर है। एक कल्याण के मार्ग पर है और एक अकल्याण के मार्ग पर है।