वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 158
From जैनकोष
प्रस्रवन्नवभिद्वारै: पूतिगंधांनिरंतरम्।
क्षणक्षयं पराधीनं शश्वन्नरकलेवरम्।।158।।
देह की मलस्रावणता―यह मनुष्य का क्लेवर ढांचा शरीर नवद्वारों से जो कि निरंतर झड़ रहा है, जहाँ से अशुचि पदार्थ ऐसे नवद्वारों से निरंतर झरते रहते हैं, जरा हिम्मत है ना, शरीर में बल है इसलिए मल डटा हुआ है। नाक में भरी तो सबके है नाक, पर वह नाक डटी हुई है क्योंकि ताकत है शरीर में। वृद्धावस्था में लार बहने लगे, मुख से नीचे टपक पड़े क्योंकि अब उस अवस्था में शरीर में बल नहीं रहा। इसलिए अब यह मल डट नहीं सकता। सो बल के कारण मल डटे हुए हैं सब जगह, पर मल भरे हुए ही हैं अंदर। यह शरीर तो मलों का घर है। मलों को ही उत्पन्न करता है, मलों से ही उत्पन्न हुआ है।
देह की क्षणक्षयिता व पराधीनता―यह शरीर क्षणक्षयी है, क्षणभर में विध्वंस होने वाला है, पराधीन है। यह शरीर अपने आप बना तो अपने ही परिणमन में किंतु जीव का संबंध होना, कर्मों का उदय होना आदिक अनेक बातों से यह पराधीन है, ऐसा यह नरकलेवर है, जिसको यह मोही जीव अपनाया करता है। इस शरीर में पराधीनता भी कितनी है? अन्न पानी न मिले तो यह शरीर मुरझा जाय और जीव का संबंध हो, कर्मोदय वाले जीव का वैसा संबंध हो तो इस प्रकार के आकार को ये वर्गणायें धारण कर लेती हैं। ऐसे पराधीन अपवित्र क्षणभर में नष्ट होने वाले शरीर से प्रीति करना व्यर्थ है। यह शरीर रहेगा नहीं, अर्थात् जीव जाने के बाद यह शरीर सड़ जायेगा, जल जायेगा, गल जायेगा, किसी भी अवस्था को प्राप्त हो लेगा, रहेगा नहीं यह शरीर। साथ ही यह शरीर दु:ख का कारण है बंधन का हेतु है, विपदा और उपसर्ग जिसके कारण आया करते हैं, ऐसे शरीर में प्रीति करने में क्या हित है?