वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1588
From जैनकोष
आत्मानं सिद्धमाराध्य प्राप्नोत्यात्मापि सिद्धताम्।
वर्ति: प्रदीपमासाद्य यथाभ्येति प्रदीपताम्।।1588।।
एक व्यावहारिक उपाय से भी चलकर अपने आत्मकल्याण की ओर यह कैसे प्रवृत्त होता है? उस बात को इस श्लोक में दिखाया है। जैसे दीपक की बत्ती जलती है तो दूसरा दीपक उसके निकट ले जाते हैं तो वह भी आग जलने लगती है, इसी प्रकार सिद्ध प्रभु जो ज्ञानानंदरस निर्भर हैं, सर्व दोषों से दूर हैं उन सिद्ध प्रभु की जो उपासना करेगा वह आत्मा भी सिद्ध बन जायगा। यह एक व्यावहारिक उपाय से कथन किया गया है। उसमें भी मर्म यह समझना कि सिद्ध भगवान की उपासना करने के समय में इसे अपने आपके स्वभाव की सुध होती है क्योंकि जिस उपयोग ने निर्दोष ज्ञानमात्र आत्मा की उपासना का काम किया है, कर रहा है तो चूंकि ऐसा ही यह आत्मा है जिसका उपयोग इस निर्दोष ज्ञानपुंज में लग रहा है तो निर्दोष ज्ञानपुंज में उपयोग लगने का नाम अपना निर्दोष ज्ञानस्वभाव है। यह मेरे लक्ष्य में आ जाता है, इस कारण वह भी मुक्त हो जाता है, पर मर्म उसके अंदर यह है कि जो सिद्ध प्रभु की उपासना करेगा वह स्वयं सिद्ध बन जायगा। यह तो बताया है एक व्यवहार साधन। अब एक अध्यात्म साधन बतला रहे हैं परमात्मपद की प्राप्ति के लिए।