वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1623
From जैनकोष
श्रीमत्सर्वज्ञ निर्दिष्टं मार्ग रत्नत्रयात्मकम्।
अनासाद्य भवारण्ये चिरं नष्टा: शरीरिण:।।1623।।
अपायविचय धर्मध्यानी पुरुष चिंतन कर रहा है कि श्रीमान सर्वज्ञदेव निर्दिष्ट सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र न पाकर इस भववन में संसार प्राणी चिरकाल से बरबाद होता चला आ रहा है। अनुमान कर लो अपने आपमें खुद का। हम हैं और जब हैं तो सदाकाल हैं। इस भव का तो हमें पता है कि 40-50 वर्ष से हम किस-किस तरह से हैं और यह हम जो अस्तित्त्व होने के कारण पहिले भी थे तो पहिले हम किस रूप में थे, इसका अनुमान यह ठीक बैठता है कि जब हम आज एक साधारणरूप में हैं तो इससे पहिले भी हम किसी शरीर में थे। यदि न होते शरीर में तो अब युक्तियाँ चलायें कि यह शरीरवान् बन कैसे गया? न होता यह अशुद्ध तो कल्पना करो कि फिर यह अशुद्ध बन कैसे गया? तो मैं था पहिले, यह जीव था पहिले और किसी न किसी शरीर में था। अब किस शरीर में हम थे इसको जानने के लिए हम संसार के अनेक शरीरधारियों की ओर दृष्टि करके निर्णय कर लेते हैं। चूंकि ये सब भी आत्मा हैं, इन सबमें भी चित्स्वरूप पाया जाता है। मेरे ही समान ये सब भी चेतने का काम करते हैं। मेरे ही समान ये सब आत्मा हैं। तब मूल में एक स्वरूप वाले ये सब आत्मा हैं और भिन्न-भिन्न शरीरों को लादे हुए फिर रहे हैं। अर्थात् इससे सिद्ध होता है कि यह आत्मा ऐसे-ऐसे विभिन्न शरीरों को लादे हुए इनमें फँसा हुआ रहा करता है। तो हम ऐसे ही शरीरों में से किन्हीं शरीर में रहे होंगे तो वह बरबादी ही तो है। शरीर धरते रहने की स्थिति में अब तक तो इस जीव की पर में दृष्टि रही और देह के पोषण में, विषयों के साधनों में ही इसकी बुद्धि बनी रही। जहाँ बुद्धि दृष्ट पर की ओर है विषयों के साधनों की ओर है तो वह आकुलित है, विह्वल है। उसमें मृगतृष्णा की तरह एक तृष्णा उत्पन्न होती है तो विषयों में वह तृष्णा ऊधम मचाती रहती है, यह इसकी हिंसाहै। यह इसके दु:ख की बात है। तो यह हालत अब तक रही। इसी मृगतृष्णा के कारण हम आप सब इस प्रकार नष्ट हो रहे हैं। यह अपायविचय धर्मध्यानी ज्ञानीपुरुष आत्मचिंतन कर रहा है कि इस अज्ञान का विनाश हो तो जीव का कल्याण है। जीव तो बिल्कुल तैयार है, परिपूर्ण है, उसमें कोई अधूरापन नहीं है, ज्ञानानंदस्वरूप है। यह विकल्प बनाता है इस कारण चिंतावों का बोझ लगा है। बाहरी पदार्थों का विकल्प बनाता है तो ये सब विपत्तियाँइस पर चढ रही हैं। विकल्प है तो व्यर्थ की चीज। जिस घर का आपको ख्याल है उस घर का हमें और दूसरों को विकल्प क्यों नहीं होता? आखिर घर आपसे भी अलग है और हम सबसे भी अलग है, भिन्न प्रदेश है। आत्मा में आत्मा है और स्कंध पुद्गल में घर स्कंध पुद्गल है। फिर आप उस भार से, बोझ से, विकल्प से, चिंता से क्यों इतना लदे हैं? ये तो सब व्यर्थ की बातें हैं। हम दूसरे की चिंता के विषय को निरखकर झट निर्णय कर लेते हैं कि यह व्यर्थ की बात है, घर में व्यर्थ ममता लगाये हैं। जीव तो शरीर से भी न्यारा है। उसके साथ बंधन क्या है? तो हमें दूसरे के संबंध में यह बात सुगमता से विदित हो जाती है। जैसे किसी के इष्ट का वियोग हो जाय तो वह बहुत रोता है, दु:ख मानता है, विकल्प करता है तो हम उसे देखकर उसकी मूर्खता का झट ज्ञान कर लेते कि यह कितना मूर्ख है? जो गुजर गया वह फिर लौटकर आता है क्या, वह कुछ था क्या,? यह जुदा है, वह जुदा है। तो दूसरे की बात को हम बहुत जल्दी जान जाते हैं कि यह मूढ़ता का अज्ञान लादे है, कैसी दृष्टि लगा रखी है? तो ऐसी घटनावों में जो बात उनकी हम सोचते हैं वही बात हमारे लिए उनकी है। ये अज्ञानमोह मिथ्यात्व रागद्वेष विकल्प दुराशय संकल्प―ये सब हमें बरबादी करने वाले हैं अतएव ये सब हमारे विनाश के कारण हैं। इनके कारण हम आज तक बरबाद होते चले आ रहे हैं।