वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1675
From जैनकोष
उद्धृत्य सकलं लोकं स्वशक्त्यैव व्यवस्थिता:।
पर्यन्यरहिते व्योम्नि मरुत: प्रांशुविग्रहा:।।1675।।
वायुओं के मध्य लोक की स्वप्रतिष्ठितता―ये तीनों ही पवन तीन लोक को धारण करके अपनी शक्ति से ही इस अनंत आकाश में अपने शरीर को विस्तृत किए हुए स्थित हैं। यह लोक अपनी शक्ति से है, यह वायु अपनी शक्ति से है, किंतु चारों ओर की जो वायु का वलय है उसका निमित्त पाकर यह इतना विस्तृत लोक सधा हुआ है। पवनों का विस्तार कितना है लंबाई में कि जितना यह लोक है। चारों ओर से उतना इसका विस्तार है। सो पवन का भी विस्तार उतना है और लोक का भी विस्तार उतना है, क्योंकि लोक में ही पवन है और पवन जहां तक है वही तक लोक है, इसके आगे लोक नहीं है।