वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1717
From जैनकोष
विषज्वलनसकीर्णं वर्द्धमानं प्रतिक्षणम् ।
मम मूर्ध्नि विनिक्षिप्त दुःखं दैवेन निर्दयम् ।।1717।।
सिर पर आ पड़ी विपदा में नारकी का आक्रंदन―तो नारकी विचार करता है कि विष और अग्नि से व्याप्त क्षण-क्षण में बढ़ने वाले ये सब दुःख, कर्म में दयारहित होकर मैंने माथे पर डाल रखे हैं । तो कर्मोदयवश नारकियों को ऐसा कठिन दुःख भोगना पड़ता है जैसे कभी यहाँ दुःख आये तो मनुष्य कह बैठता है कि ओह ! यह विपत्ति तो मुझ से नहीं सही जाती है । ऐसी कठिन-कठिन विपत्तियों वाली उन नरकों की भूमि के दुःख असाता आदिक पापकर्म के कारण सहन करने पड़ते हैं । अधोलोक के स्वरूप के चिंतन में ज्ञानी पुरुष उन नरक और नारकियों की बातों का चिंतन कर रहे हैं कि वे नार की किस तरह विह्वल रहते हैं, क्या-क्या सोचते रहते हैं, कैसे कठिन -कठिन दुःख पा रहे हैं? यहाँ देखो पंच पाप, व्यसन, विषयासक्त, बैर विरोध इन सब पापकर्मों का फल है । संस्थानविचय धर्मध्यान में लोक की रचना का विचार चलता है उन रचनाओं का यथार्थ बोध करने पर वैराग्य की बुद्धि होती है । स्नेह और मोह करने की बात फिर नहीं रहती ।