वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1723
From जैनकोष
सहाय: कोऽपि कस्यापि नाभून्न च भविष्यति ।
मुक्त्वैकं प्राक् कृतं कर्म सर्वसत्वाभिनंदकम् ।।1723।।
लोक में अशरणता का विचार―इस संसार में कोई किसी का सहायक नहीं है, सहायक हो कैसे? वस्तु के स्वरूप पर दृष्टिपात करिये―प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है । उदाहरण में यहीं की वस्तु ले लीजिए, यह एक घड़ी है और यह एक चौकी है । तो घड़ी का स्वरूप घड़ी में है और चौकी का स्वरूप चौकी में है । यह चौकी घड़ी का कुछ नहीं कर सकती । तो एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ भी करने में समर्थ नहीं है । जब घड़ी चौकी पर रखी है तब भी चौकी घड़ी में कुछ नहीं कर रही, किंतु चौकी का एक आश्रय लेकर घड़ी अपने स्वरूप में मौजूद है । परिवार में 10-5 जीव बस रहे हैं, परस्पर प्रेम से रहते हैं, एक दूसरे की सुध लेते हैं, भोजन कराते हैं इतने पर भी कोई किसी का कुछ नहीं कर रहा । तत्वदृष्टि से देखो―प्रत्येक जीव अपने भावमात्र है । मेरा स्वरूप है ज्ञानानंद, उसके ही विस्तार में वह अपने ज्ञानानंद भाव को छोड़कर दूसरे जीव का कुछ भी करते में कोई भी समर्थ नहीं है । सभी के अपनी-अपनी कषाय लगी हैं, राग लगा है, तो उस कषाय और राग की वेदना शांत करने के लिए वे परिवार के सभी लोग आपकी अपनी चेष्टाएँ करते हैं, दूसरे को सुखी करने के लिए कोई चेष्टा नहीं कर रहे, किंतु अपनी वेदना मिटाने के लिए वे चेष्टा कर रहे हैं । अनेक दृष्टांतों से समझ लीजिए । आपके सामने कोई भिखारी बड़े कार्त स्वर में रोता हुआ आये, आपने दया कर के उसे भोजन करा दिया तो लोक व्यवहार में तो कहा जायगा यह कि देखो अमुक सेठ ने उस भिखारी का दुःख मेट दिया, पर उस भिखारी की परिणति भिखारी में है, सेठ की परिणति सेठ में है, उस सेठ ने स्वयं अपने में उस भिखारी जैसा क्लेश बनाया तो उस अपने ही क्लेश को मिटाने के लिए सेठ ने उसे भोजन दिया और भोजन कर के भिखारी जो सुखी हुआ, उसने अपना दुःख मेटा, सो भिखारी ने अपना विचार कर के अपना दुःख मेटा, सेठ ने अपनी वेदना शांत करने के लिए उसे भोजन दिया । वह दूसरे को सुखी अथवा दुःखी नहीं कर सकता । कोई विरोधी मनुष्य है वह किसी पर आक्रमण करे, किसी को दुःखी करे तो लोकव्यवहार में यह कहा जाता है कि देखो अमुक बैरी ने अमुक को बड़ा परेशान कर: डाला, लेकिन वस्तुस्वरूप यह कहता है कि उस विरोधी ने केवलं अपनी कल्पनाएँ, अपना परिणाम किया, इससे बाहर कुछ नहीं किया । अब उसका ही उदय ऐसा खोटा आया कि उस बैरी के निमित्त से वह परेशानी में पड़ गया । उसमें दूसरे ने कुछ नहीं किया। तो एक पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ का कुछ भी करने में समर्थ नहीं है, निमित्त भले ही बना रहे, पर कर रहे हैं सभी स्वतंत्र रूप से अपना-
अपना परिणमन ।
पुण्य, पाप परिणाम―जब किसी जीव का भवितव्य अच्छा है, पुण्य का उदय है तो दूसरे जीव भी उसके सहायक बनते हैं और अगर उसका ही उदय प्रतिकूल है तो दूसरे जीव उसकी रक्षा में निमित्त भी नहीं बन पाते । कोई भी दूसरा जीव किसी दूसरे जीव का न कभी सहायक हुआ, न सहायक है और न कभी सहायक होगा । पापों से बुद्धि हटे, विषयों से प्रीति हटे, बाह्यपरिग्रहों की तृष्णा हटे, अपने आपके स्वरूप का भान हो, अपनी ओर रहे तो यही वास्तविक अपना सहारा है । बाह्य में किसी भी पदार्थ की आशा करना कि ये मेरे सहायक होंगे यह तो एक भ्रम की बात है, पर मोह में यह जीव पर को सहायक मानता है । बालक उत्पन्न हुआ तो छोटी ही अवस्था में उसे निरखकर लोग ऐसी कल्पना बनाते, ऐसी बुद्धि बनाते कि यह बड़ा होगा, मेरे साथ बड़े विनय का व्यवहार करेगा, मुझे सुख शांति देगा, मेरा सहायक होगा, मेरा यह बच्चा सहारा है पर यहाँ के बच्चों की परिणति देखकर आप अनुभव कर लीजिए कि कौन किसका सहारा हो सकता है? कदाचित् लोई बच्चा अनुकूल भी हो तो वह भी मेरे दुःख के लिए है ऐसा आप निर्णय कर लीजिए । कोई बच्चा मेरे प्रतिकूल है तो वह भी मेरे दुःख के लिए है । जो बच्चा प्रतिकूल है वह तो दु:ख के लिए है ही, पर जो अनुकूल है, विनयशील है, बड़े प्रेम के बोल बोलता है वह तो मेरे और विशेष दुःख के लिए है, क्योंकि मैं उसके सुखी रखने के लिए भरसक प्रयत्न करूँगा, रात दिन उसको ही दिल में बसाकर क्षोभ में रहा करूँगा, तो दूसरा पदार्थ मेरे सुख के लिए कौन हो सकता? तो यहाँ कोई किसी का सहाय नहीं । अपना सहाय तौ एक अपना ही ज्ञान है अपना ही सदाचार है । यहाँ भी यदि कोई दूसरा मेरी बात पूछता है तो मैं अमुक चंद हूं-, अमुक लाल हूँ । इस वजह से लोग मेरी बड़ी पूछ करते हैं यह बात नहीं है किंतु बड़े अच्छे सदाचार से रहता हूँ, बड़ी नीति व्यवहार से रहता हूँ तब लोग पूछ करते हैं । यदि मैं ही किसी दूसरे को गाली देने लगूँ अथवा असद्व्यवहार करने लगूँ, अभिमान से रहने लगूँ तो फिर कौन मेरी पूछ करेगा? लोग मुझे बड़ा क्यों मानते हैं? अरे जव मेरी करतूत अच्छी है, व्यवहार न्याययुक्त है इसकी वजह से लोग पूछ करते हैं । यहाँ जो पूछ भी करते हैं वै अपने सुखी रहने के लिए पूछ करते हैं, फिर जगत में कौन किसके लिए सहाय है? अपनी जिम्मेदारी अपने आप पर है, दूसरा मेरा कोई जिम्मेदार नहीं, कोई किसी से प्रीति करने वाला नहीं' । कैसा ही कोई बड़ा प्रीति वान हो, स्त्री हो, पुत्र हो, निष्कपट भी हो, कोई छल भी न रखता हो तिस पर भी वस्तुस्वरूप यह बतला रहा है कि वह जीव केवल अपने ही भाव बना पा रहा है मेरा परिणमन कुछ नहीं कर सकता ।
अपनी ही सुध बनाये रहने में श्रेयोलाभ―जब सर्व पदार्थ अपना ही परिणमन करते हैं तब इस स्थिति में हम यदि अपने आपका कुछ ध्यान रखें, अपनी कुछ लगन बनायें, अपनी ओर आये तो हमारा जीवन सफल है, नहीं तो बाह्य वृत्तियों में हमारा जीवन ऐसा ही बेकार समझिये जैसे अनंत भव हमारे गुजर गए । जो भी शांत हुए हैं सबको इस धर्म की छाया में आना पड़ा है । जो भी शांत हो सकेंगे, निराकुल हो सकेंगे वे इस धर्म की छाया में आकर निराकुल हो सकेंगे । हम कभी सुखी होंगे शांत होंगे पर जितना हम विलंब कर रहे हैं धर्मपालन के लिए हम जितनी देर कर रहे हैं उतना ही इस संसार में अधिक रुलेंगे । पता नहीं कि यह मानव देह फिर कब मिले? तो यह यथार्थ समझ रखें कि धर्म के लिए हम विलंब न करें । यह विश्वास रखें कि परिवार में ये जो 10 जीव हैं ये सब अपने-अपने कर्म लिए हुए हैं । कहो पिता गरीब रहे और बच्चा ऐसा होशियार हो कि थोड़े ही समय में वह धनिक बन जाय, बड़ी कुशलता प्राप्त कर ले, बड़ी चतुराई आ जाय । तो यह सब जीवों का अपना-अपना उदय है । ऐसा भ्रम करना भूल है कि मैं किसी का जिम्मेदार हूँ, मैं ही करने वाला हूं, मैं करता हूँ तब इन जीवों को सुख मिलता है, इनका पालन पोषण होता है । ये सब भ्रम पूर्ण बातें हैं । पुरुषार्थ चलता है मोक्षमार्ग में और भाग्य प्रधान रहता है सांसारिक कार्यों में । ये दो चीजें हैं―भाग्य और पुरुषार्थ । दोनों बातें चलती हैं यहाँ भी, लेकिन सांसारिक सुख मिले, वैभव मिले, इज्जत मिले, इन सबमें मुख्य है भाग्य और हमारा परिणाम सुधरे, हमारे कर्म कटे, मोक्ष में हमारे कदम बढ़े इन कामों में मुख्य है पुरुषार्थ । दो पुरुष परस्पर में झगड़े गए, एक कहे कि भाग्य बड़ा है और एक कहे कि पुरुषार्थ बड़ा है । राजा के यहाँ न्याय गया तो राजा ने उन दोनों को कच्ची जेल दे दी । एक कोठरी में बंद कर दिया और कह दिया कि तुम्हारा न्याय दो दिन बाद होगा । उसी कोठरी के अंदर सेर-सेर भर के दो लड्डू एक जगह पहिले से ही छिपाकर रखवा दिये । दूसरे दिन जब उन्हें भूख लगी तो उनमें से जो पुरुषार्थ को प्रधान कहता था वह इधर उधर कोठरी भर में कुछ ढूँढने लगा । उसे एक जगह दो लड्डू दीखे । वह बड़ा खुश हुआ । स्वयं खाया और दूसरे पर भी दया आयी सो उसे भी खिलाया, दोनों ने भूख मेट ली । जब राजा ने उन दोनों को कोठरी से निकालकर न्याय करने के लिए खड़ा किया तो उस पुरुषार्थ प्रधान कहने वाले व्यक्ति ने पहिले ही कह दिया कि देखो महाराज ! हमने पुरुषार्थ कर के दो लड्डू उस कोठरी में खोज लिए थे, यह भाग्यवादी अपने भाग्य को लिए बैठे ही रहे थे । हमने खुद लड्डू खाकर अपनी भूख मिटाई और इस भाग्यवादी को भी खिलाकर इसकी भी भूख मिटाई, तो महाराज पुरुषार्थ ही प्रधान हुआ । तो भाग्यवादी झट बोल उठा―महाराज हमने कुछ भी प्रयत्न न किया था, प्रेम से बैठे रहे, पर हमारा भाग्य था तभी तो इनके द्वारा हमें लड्डू खाने को मिले थे । तो महाराज भाग्य प्रधान हुआ । तो ये
सांसारिक चीजें भाग्य के अनुसार प्राप्त होती हैं और मोक्षमार्ग संबंधी चीजें पुरुषार्थ की प्रधानता से प्राप्त होती हैं । ज्ञानी जीव तो इन सांसारिक चीजों से अपना हित हो नहीं समझता इसलिए न वह भाग्य को महान मानता और न इन सांसारिक सुखों को । ज्ञानी जीव तो एक धर्म के आश्रय को महत्व देता है । जीवों का उद्धार करने वाला शरणभूत एक धर्म है । नारकी जीव विचार कर रहा है कि यहाँ मेरा कोई सहायक न हुआ, न है और न होगा । यदि संसार में कोई सहायक हो सकता है तो अपने शुभ कर्म ही सहायक हो सकते हैं ।
संस्थानविचय धर्मध्यान में ज्ञानी का नरक संबंधी दशा का चिंतन―संस्थानविचय धर्मध्यान में इस समस्त लोक की रचना का विचार किया जा रहा है । अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक―इन तीन भागों में यह लोक बंटा हुआ है । कैसी-कैसी रचनाएँ हैं, कैसे-कैसे जीव रहते हैं इसका वर्णन चल रहा है । अधोलोक में नारकी जीव बिलों में रहा करते हैं । यद्यपि वे बिल इतने बड़े हैं जैसी कि आज की यह परिचित दुनिया है । लेकिन उन्हें बिल यों कहते हैं कि उसके चारों ओर पृथ्वी है, नीचे अगल-बगल और ऊपर पृथ्वी है । तो जैसे कोई एक फिट लंबा चौड़ा मोटा काठ पड़ा हो और उसके भीतर 10-20-50 छिद्र हों तो जैसे उनका मुख किसी तरफ बाहर नहीं निकला है, वह भीतर ही भीतर है ऐसे ही मोटी-मोटी 7 पृथ्वी हैं, उनके भीतर कुछ बिल हैं जिन बिलों में वे नारकी जीव रहते हैं तो वे बिलों की तरह हैं । उन बिलों में नारकी जीव निवास करते हैं । नरक में उत्पत्ति पापकर्म के उदय से होती है । तो पापकर्म का विपाक इतना कटुक है ऐसा समझने के लिए संस्थानविचय धर्मध्यान में अधोलोक का चिंतन चल रहा है ।